ज़िंदगी दोबारा

यह किसी गीत की पंक्तियों का हिस्सा नहीं हैं। एक छोटी सी इच्छा है। मुझे बाबा का बचपन देखना है। दादी कैसे उस घर में पहली बार आई होंगी। तब घर कैसा रहा होगा। आजी खाना ख़ूब बनती थीं। खा कर देखता। देखता,  हर हफ़्ते सड़क किनारे चुपचाप चलते हुए नाना नानी के साथ खुटेहना बाज़ार जाते हुए कैसे लगते होंगे। मामा के पास साइकिल होती थी, तब भी वह पीछे सामान लादे साथ पैदल चल रहे हैं। दरअसल, मैं हर वह पल देख लेना चाहता हूँ, जो मेरी अनुपस्थिति में घटित हुआ होगा। जिन स्मृतियों को सिर्फ़ सुना है, उन्हें अपने सामने बीतते हुए महसूस करता। मौसी, जिनकी कोई तस्वीर नहीं है, मेरे बचपन की किसी याद में वह नहीं हैं, इतना छोटा रहा होऊंगा, कुछ ध्यान नहीं है। उन्हें भी एक बार छू लेता। एक स्तर पर इन इच्छाओं को मानसिक व्याधि कहा जा सकता है। जो अपने वर्तमान में न रहकर बार बार अतीत में लौटने के लिए व्याकुल है। कभी-कभी तो यही समझ नहीं आता, यह क्या है? ऐसा होते जाने की वजह क्या रही होंगी? क्यों इस आज में वह नहीं है, जो कल में मुझे बराबर खींचता रहा है? इसका एक जवाब यह हो सकता है, शायद उन सब घटनाओं को होते हुए देखते रहने में यह इच्छा अंतर्निहित हो, के उन्हें अपने आज के लिए साथ-साथ लिखता जाता। वह ब्यौरे मुझे तब किसी से पूछने नहीं पड़ते। जब जो याद आता, उसके लिए मेज़ पर पड़ी अपनी डायरी उठाता और मेरा काम बन जाता। हो सकता है, मेरा यह जवाब कई लोगों को अभी संतुष्ट नहीं कर पाया हो। मुझे उनसे कोई उम्मीद नहीं है। 

सिवाय इसके, शायद वह भी अपनी उम्र के किसी पड़ाव पर पहुँचकर इसी तरह पीछे देखने की इच्छा से भर जाएँगे। मेरे लिए यह आत्मकेन्द्रित हो जाना नहीं है। जब हम बड़े हो रहे थे, सब इतनी तेज़ गति से पलट गया, जिसमें हम कुछ समझ भी नहीं पाये। एक दृश्य अभी अपनी नियति को प्राप्त नहीं होता था, एक दूसरी ही पटकथा लिखी जाने लगती थी। मामा ने किसी झगड़े के बाद सलफ़ास खा लिया। हमें बताया गया, उन्हें कालरा लील गया। हम बहुत छोटे थे। दसवीं भी पार नहीं कर पाये थे। हमें नहीं पता था, कालरा क्या होता है? उन्होंने हम सबके नाम एक पर्ची पर लिखी और हमें अपने भविष्य के लिए शुभकामनाएँ दी। यह उनका आख़िरी सलाम था। हम ननिहाल पहुँचे हैं और पता नहीं हमारे मन में क्या आया, हम उनकी लिखने वाली दफ्ती लगी कॉपियों को अपने साथ ले आए। यह पर्ची तब उसमें कहीं मिली। वह कैसे जानते थे, एक दिन उस बड़े से चाय वाले बोरे में रखी हुई उन कॉपियों तक हम पहुँच जाएँगे? इस घटना का मेरे मन पर पता नहीं क्या असर पड़ा? शायद अपने आप को अपने अंदर समेट लिया। यह दादी की मृत्यु के आस पास की बात है। नाना भी उसके कहीं इसके बाद ही ख़त्म हो गए। 

किसी के हमेशा के लिए अनुपस्थित हो जाने पर जो शून्य होता है, उसे इतनी पास से महसूस करना लगता है, मुझे इस लिखने की तरफ़ धकेल देता है। लिखना ही वह युक्ति लगती है, जिसमें हम ख़ुद को थोड़ा सा बचाए रख सकते हैं। हम जब अपने उन दिनों में कोमलतम स्मृतियों को सहेजने में व्यस्त होना चाहते थे, तब हम इन रिक्तताओं से ख़ुद को भर रहे थे। यह अनुभव आघात की तरह ही रहे होंगे। पता नहीं तब हमने उससे बचने के लिए क्या किया होगा? इन्हीं सब दृश्यों के लिए इस ज़िंदगी में दोबारा पीछे लौटता चाहता हूँ। बताइये, क्या गलत चाहता हूँ?

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