यह एक निजी पोस्ट है। इसलिए कुछ कहने से पहले सोचना ज़रूरी नहीं। इस डिस्क्लेमर के बाद कुछ भी कहना बाकी नहीं रह जाता। आज दोपहर इस फरवरी की किसी याद में मन कहीं खो गया। इधर मन कुछ ऐसे ही होने लगा है। अजीब-सा। हरदम इतना भरा लगता है, जैसे वक़्त नहीं मिलता। लिखना छूट न जाए इसलिए यहाँ दोबारा आ गया था। पर इसे बचा ले जाना मुश्किल लग रहा है। मुश्किल लिखने में नहीं, उस वक़्त को अपने पास बरक़रार रखने की जद्दोजहद में दिमाग का कचूमर निकल जाने में है। हम जिस दौर में लिख रहे हैं, वहाँ यह एक सकर्मक क्रिया है। यह ऐसा वक़्त है, जब लगता है, हम सबको एक साथ अलग-अलग भाषा में अपने-अपने हिस्से के अनुभवों को लिख कर रख लेना चाहिए। जो ऐसा नहीं कह रहे, वह चुप रहकर ख़ुद को दर्ज़ करने की किसी भी संभावना से हट रहे हैं। अभी शाम ऊपर गया, दोबारा डायरी उठाकर देखी। बहुत अजीब तरह से वह शब्द अपनी तरफ़ खींच रहे थे। पर उसे उठाकर लिख नहीं पाया। लेकिन एक घंटे से इधर एक चीज़ ख़ुद में देख रहा हूँ, जब से मेरा लिखना कम हुआ है या इसे इस तरह बेहतर समझ सकते हैं कि जबसे लिखने से बचने लगा हूँ, तबसे हर किसी से लिखने के लिए कहने लगा हूँ।
खिड़कियों के बाहर अकसर छज्जे होते हैं. यह उनके लिए छतरी का काम करते होंगे. बारिश में भीगने से उसे बचाते हुए ख़ुद भीग जाना उन्हें अच्छा लगता होगा. ऐसा करके वह खिड़की को भीगने नहीं देते. उन दोनों का ऐसा होना, क्या प्रेम में होने के लिए काफ़ी नहीं है? क्या पता? मैं अभी सोच रहा हूँ, कौन खिड़की है और कौन छज्जा है. जितना दिख रहा है, शायद वह छज्जा तोड़ने वाला नहीं देख पाया. उसने हथौड़ी से उस छज्जे को चकनाचूर कर दिया. वह अभी भी अपनी जगह से सात फुट नीचे जमीन पर बिखरा पड़ा है. वह बिखरते हुए उस खिड़की को निहार रहा होगा. अब खिड़की को छज्जे की ज़रूरत नहीं है. ऐसा खिड़की ने नहीं कहा. किसने सुन लिया, नहीं पता. छज्जे को खिड़की की चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है. अब छज्जे से चार फुट ऊपर छत आने वाली है. खिड़की को वह पूरा ढक लेगा. उस खिड़की को छज्जे कि याद नहीं आएगी. छत छोटी हुई तो क्या हुआ? दोनों में दोस्ती तो हो ही सकती है. इलाहबाद इसलिए एक ठीक शहर है. खंडहर होता शहर. वहाँ कोई खिड़की और छज्जे को अलग करने नहीं आता. सब उन दोनों को छोड़कर कबसे वापस नहीं लौटे हैं, कोई नहीं जानता.
वह चले गए. ऐसे जैसे कभी यहाँ थे ही नहीं. किसी से कुछ नहीं बोले. ऐसा नहीं है, किसी से बोलने का मन नहीं हुआ होगा, पर क्या बोलते? जो वह कहते, हम उसे कर नहीं पाते. शायद इसलिए बिन बोले चले गए. चले जाना हमेशा के लिए चले जाना नहीं है. वह स्मृति की तरह किसी आम के पेड़ की बौर की तरह हर साल वापस आना है. पर याद के पेड़ों पर साल, साल भर जितने बड़े नहीं होते. वह हर रात लौट आते हैं. उनका हर पल लौट-लौट आना उनकी अनगिनत आवृत्तियों को बताता है. यह गणित के विशेषज्ञों की गणना से परे की बात है. उनके कल रात चले जाने के बाद भी वह जगह अभी भी किसी के होने के निशान छोड़ रही होगी. कई दिनों तक हाथ में लगे रंगों की तरह छूटती रहेगी. वह भी अपने हिस्से की कई यादों को यहाँ बिखरा हुआ छोड़ गए होंगे. उन्होंने ऐसा जानबूझकर नहीं किया होगा. वह यहाँ ख़ुद छूट गए होंगे. किसी कोने में अभी ख़ुद खड़े होंगे. वह ब्रश जो वह नहीं ले गए. उन दो बोतलों पर उनमें से किस किस के निशान होंगे. उस दरवाज़े को आख़िरी बार छूकर कौन कौन गया होगा? स्पर्श की अपनी स्मृतियों में उस लोहे का दरवाज़ा जिस सीमा का निर्माण कर रहा था, उसे अतिक्रमित करते हुए वह च
मुझे लगा था, लिख जाऊंगा। पर नहीं। नहीं लिख पाया। किसी की मौत पर लिख जाना इतना आसान नहीं। मुश्किल तब और बढ़ जाती है, जब हम जानते हों, वह हत्या है। पता नहीं पिछले शनिवार से कैसा कैसा होता गया हूँ। कितनी बार रोने को हुआ। रो न सका। रघुवीर सहाय की कविता रामदास कितनी ही बार अंदर-ही-अंदर घुटती रही। घुटन सांस में ही नहीं, अपने पूरे वजूद के साथ महसूस होने लगे, तब सच में कुछ अंदर से बाहर आकर टूट जाता है। टूटना रेशे-रेशे का है। उसे कोई हथकरधा सुझा नहीं सकता। हम चुनते हैं किसे, कैसे, कब, कहाँ मारना है। यह सभी प्रश्न तब शुरू होते होंगे, जब हमारे पर 'क्यों' का जवाब होता होगा। क्यों हम किसी को मारने के इरादे से भर जाते हैं? पर इन सवालों से पहले यहाँ देखने लायक है, उन हत्यारों में 'ख़ुद' को मिलाकर 'हम' कहना। क्या यह अपने साथ किसी भी तरह का अनाचार नहीं है। हम क्यों उनके जैसे हो जाएँ। हम अपने भीतर यह सारी लड़ाई लड़ेंगे। इन सवालों से जूझेंगे। कोई भी हत्या किसी भी संवाद की अंखुवाने वाली सम्भावना को खत्म कर देना है। हमें इसी ख़त्म होने से ख़ुद को बचना है। तभी हममें वे शामिल नहीं
यह हिस्सा भले बसंत के हिस्से से यहाँ तक आया हो पर इसमें कुछ भी वैसा नहीं है. रंग तो जैसे उड़ गए हों. पीपल के पेड़ एक दम नंगे खड़े हैं. आम का पेड़ दो साल में एक बार बौर से भर जाता है. इस बार भी भर गया है. आगे कितने सालों तक ऐसा हो पायेगा, कहा नहीं जा सकता. उसकी जड़ें कंक्रीट से घिर चुकी हैं. यह बहुत साल पहले की बात है. अब इस साल तो वह कटने से बच गया, इसी की खैर मना रहा होगा. दुःख का रंग नहीं होता वह बेरंग होता है. यह महिना ही कुछ ऐसा है. वह जब अपना सामान बांध रहे होंगे और उन्हें पता है, कभी वापस लौट पाना नहीं होगा, उनके मनों में यह वासंती हवा किस तरह हिलोरे मार रही होगी. उनकी आँखें शांत हैं. वह कुछ बोलते भी हैं, तो लगता है, जैसे झूठ बोल रहे हों. जहाँ जीवन के सबसे खुशनुमा साल बिताये हों, वहाँ से अचानक जाने के सवाल को वह सुलझा लेने की कोशिश कर रहे हैं. उनके हिस्से कुल एक कमरा था. एक ऐबस्टस की टीन थी. दिन थे गुज़र रहे थे. वही दिन साल भी बने होंगे और इतनी जमा पूँजी में कितनी ही यादें सबने अपनी जेबों में भर-भर रख ली होंगी. जा वह रहे हैं. सिर्फ़ कमरा खाली नहीं हो रहा, खाली हम सब हो
कोई किसी किताब का कितना इंतज़ार कर सकता है, कह नहीं सकता। मेरा यह अनुभव अभी तक सिर्फ मुझतक सीमित है। मोहन राकेश को मैंने उनके नाटकों से नहीं जाना। उनकी डायरी से मिलकर मुझे लगा, यही वह व्यक्ति है जो मुझे, मुझसे मिलवा सकता है। यह बात रही होगी ग्रेजुएशन के खत्म होने वाले साल की। तब व्यवस्थित तरीके से लिखना शुरू नहीं किया था। कुछ भी नहीं। डायरी की शक्ल में तो बिलकुल भी नहीं। मोहन राकेश की डायरी ने बताया, लिखना सिर्फ लिखना नहीं होता। मैं सोचता, अगर यह डायरी अपने पास रखने के लिए मिल जाये, तो क्या बात होती। यह कोरी भावुकता में लिपटी हुई व्यक्तिगत इच्छा नहीं है। बस कुछ था, जो ऐसा लगता रहा। साल बीते हम एमए में आ गए। एमए खत्म हो गया। मोहन राकेश का नाटक 'आधे-अधूरे' पढ़कर लगता रहा डायरी में इसके हवाले ज़रूर होंगे। पर कुछ कर नहीं पाया। कुछ करना था ही नहीं। छात्र अक्सर कुछ कर भी कहाँ पाते हैं? सब कहते 'आपका बंटी' मोहन राकेश के पारिवारिक ज़िंदगी की कहानी है। उसमें जो बंटी है, वही उनका बेटा है। मैं ऐसा कहते हुए कोई नयी बात नहीं कह रहा। बस उन बातों को अपने अंदर फिर से दोहरा लेना चाहता
वक़्त को पकड़ने की जद्दोजहद में हम कहीं वक़्त की गिरफ़्त में ऐसे जकड़ गए कि उससे बाहर कभी देख ही नहीं पाये। वह घड़ी मेट्रो स्टेशन पर लगातार असमान गति से चलते हुए भी 'अंडर मेंटेनेंस' हो सकती थी और उसके भागने पर भी वक़्त को कोई फरक नहीं पड़ने वाला था। वह रुक जाती तब क्या होता(?) इसकी कल्पना कोई नहीं करता। क्या वक़्त सचमुच घड़ी के बाहर नहीं है? पता नहीं। पता नहीं यह क्या है, जिसे समझ नहीं पा रहा। समझना एक तरह की सहूलियत में पहुँच जाना है। यही समझना नहीं हो पा रहा इधर। इधर नहीं हो पा रहा कुछ भी। कुछ भी नहीं। मैं वहीं आते-जाते लोगों के बीच कहीं कोने में खड़ा उन सुइयों के बीच घूमते वक़्त को देखता रहा। मेरे एकांत के उन क्षणों को किसी ने छुआ तक नहीं। मैं खड़ा भी कितनी देर तक रह सकता था। यह नहीं सोचा। बस खड़ा रहा। चुपके से। वहीं। एकदम अकेले। वहीं खड़े-खड़े यह बात दिमाग में घूमती रही। हम एक अक्षांश पर झुकी पृथ्वी को कभी घूमता हुआ महसूस नहीं करते। भूगोल जैसा विषय इतना व्यावहारिक होते हुए भी कभी समझ नहीं आता। हमने उसे विषय में तब्दील करने के साथ विदिशा से गुजरती कर्क रेखा जितना अदृश्य कर दिया
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