वक़्त की ओट में कुछ देर रुक कर

यह तस्वीर ठहरे हुए वक़्त की एक कोशिश है।
वक़्त को पकड़ने की जद्दोजहद में हम कहीं वक़्त की गिरफ़्त में ऐसे जकड़ गए कि उससे बाहर कभी देख ही नहीं पाये। वह घड़ी मेट्रो स्टेशन पर लगातार असमान गति से चलते हुए भी 'अंडर मेंटेनेंस' हो सकती थी और उसके भागने पर भी वक़्त को कोई फरक नहीं पड़ने वाला था। वह रुक जाती तब क्या होता(?) इसकी कल्पना कोई नहीं करता। क्या वक़्त सचमुच घड़ी के बाहर नहीं है? पता नहीं। पता नहीं यह क्या है, जिसे समझ नहीं पा रहा। समझना एक तरह की सहूलियत में पहुँच जाना है। यही समझना नहीं हो पा रहा इधर। इधर नहीं हो पा रहा कुछ भी। कुछ भी नहीं। मैं वहीं आते-जाते लोगों के बीच कहीं कोने में खड़ा उन सुइयों के बीच घूमते वक़्त को देखता रहा। मेरे एकांत के उन क्षणों को किसी ने छुआ तक नहीं। मैं खड़ा भी कितनी देर तक रह सकता था। यह नहीं सोचा। बस खड़ा रहा। चुपके से। वहीं। एकदम अकेले।

वहीं खड़े-खड़े यह बात दिमाग में घूमती रही। हम एक अक्षांश पर झुकी पृथ्वी को कभी घूमता हुआ महसूस नहीं करते। भूगोल जैसा विषय इतना व्यावहारिक होते हुए भी कभी समझ नहीं आता। हमने उसे विषय में तब्दील करने के साथ विदिशा से गुजरती कर्क रेखा जितना अदृश्य कर दिया। हमने मान लिया, वह दिख भी नहीं रही इसलिए है भी नहीं। मानना कितना आसान है, अपनी दुनिया को रचने उसे बनाने के लिए। शायद यही पहली शर्त है, जिसके बाद सब गढ़ा जाता है। यह गढ़ना हमारी सीमाओं के भीतर बनती अजीब सी दुनिया का नक्शा है। जिसमें हमारे तय करने के बाद भी कितना कुछ बचा रह जाता है। बचना हमारे लिए बहाना भी है। हम यहीं अंधविश्वास गढ़ते हैं।

रोज़ सुबह सूरज की किरणें हमारी धरती की तरफ़ आने के लिए न जाने कितने प्रकाश वर्ष का फासला हर पल तय करती होंगी। वह सिर्फ़ हम तक नहीं आ रहीं, पूरे ब्रह्मांड में न जाने कहाँ-कहाँ उसकी किरणें रौशनी बनकर जाती होंगी। कभी मेरे बूते में हुआ और अपनी इस पृथ्वी को अन्तरिक्ष से देख सका, तब सूरज को उगते हुए देखुंगा। देखुंगा उन साढ़े आठ मिनटों में सूर्य की किरणें किस तरह हमारे ग्रह तक आती हैं? वह कैसे अँधेरे को चीरती हुई लगातार रौशनी, हवा, जगह इत्यादि से घर्षण करती हुई हम तक पहुँचती होंगी? मुझे पता है, मैं इन पंक्तियों में इस दृश्य को बिलकुल भी वैसा नहीं लिख सका, जितना इसे अपने अंदर महसूस किया करता रहा। मैं भी रात घास पर पड़ी ओस की बूंद होकर उस इन्द्रधनुष के अपने अंदर बनने की प्रतीक्षा में न जाने किन-किन ख़यालों से भर जाऊँगा। भर जाऊँगा उन खाली क्षणों से और थाम लुंगा उन पलों को। यह पलों को कैद करने की पहली कोशिश होगी।

वैसे हम सब इन गिनतियों से कुछ देर के लिए भाग लेना चाहते हैं। जब हम सोते हैं, तब भी यह पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती हुई हमें कितने प्रकाश वर्ष की गति से हमें अपने छोटे से कैलेंडर से कितना आगे ले जाती होगी। लेकिन हम ढीठ हैं। हम यहीं बिस्तर पर करवट लेते-लेते अपने दरवाजे को उसी दिशा में पाना चाहते हैं, जहाँ सोने से पहले उसे छोड़ा था। कितना अच्छा होता न जब जब हम उठते, तब तब हमारी खिड़की, दरवाज़े, सड़कें, घर सब एकदूसरे में घुलमिल जाते। दिशा का एकाधिकार टूट जाता। सूरज को भी रोज याद नहीं रखना पड़ता। उसको कितनी आसानी होती। पर हम लोग समझते नहीं है। हम सबका दिमाग एक बिन्दु पर आने के बाद काम करना बंद कर चुका है, लेकिन हम मानना ही नहीं चाहते। हम जिद्दी हैं, पर उससे जादा डरपोक हैं। हम डरते हैं। क्योंकि हमने कुछ किताबें लिख दी हैं और उनके पलटने से डरने लगे हैं। यह डर ही है, हम कुछ भी सोचने के लिए तय्यार नहीं हैं।

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