दोस्तोएवस्की का घोड़ा
‘दोस्तोएवस्की का घोड़ा’ मेरी आने वाली किताब का नाम होने जा रहा है । यह नाम मैंने खुद ही चुना है । क्यों चुना है, इसके पीछे पता नहीं कौन सी वजह रही होगी, कुछ तयशुदा तरीके से कह नहीं सकता । सबसे जादा तो लगता है, किसी भी व्यक्ति के मन में यह बात चल रही होती है कि नाम ऐसा हो जो उस जिल्द को अपने भीतर समा ले या उसके मायनों को सबके सामने खोल कर रख दे । क्या है ऐसा इस नाम में जबकि दोस्तोएवस्की को क्या किसी रूसी कथाकार को इतनी गंभीरता से कभी पढ़ने का अवकाश ही नहीं मिला । बहुत धुंधली सी याद में ‘चेखव की दुनिया’, जो हमारे बचपन के दिनों में दूरदर्शन पर आता था, उसकी स्मृतियां हैं । एक आदमी ओवरकोट पहने पैदल चला जा रहा है । वह क्या चेखव हैं? उनकी कहानी ‘एक क्लर्क की मौत’ रह-रह याद आ रही है । याद तो यह भी आ रहा है कि बलराज साहनी के छोटे भाई भीष्म साहनी बहुत वर्षों तक रूस में रहे और कई किताबों का अनुवाद उन्होंने किया। इसमें सवाल यह भी लगातार बना हुआ है कि क्या हम इस दौर के लेखकों को जानते हैं ? शायद हममें से कुछ को उस महिला पत्रकार का नाम किसी को याद आ रहा हो, जिन्होंने चेर्नोबेल हादसे के बाद उससे पीड़ित