शहर और दुनिया के बीच

शहर/ शहर को कोई लड़का कैसे देखेगा? कौन सी उसकी स्मृतियाँ बनेंगी जो उसे एक लड़के की तरह शहर को उसके सामने प्याज की तरह उसकी तहें खोलता जाएगा ? क्या वह हाथ में लाख की लाल चूड़ियाँ पहने लड़की की कमर होगी या उसके स्तनों की वक्रता ? या उसकी आँखें उस लड़के को देख रही होंगी, जो उस लड़की को उसकी कलाइयों, हथेलियों और जहाँ चाहे वहाँ से पकड़ लेने की उसकी इच्छा को टटोलता हुआ कुछ अपने दिनों की तरफ़ लौट रहा होगा? शहर जितना बड़ा होगा, बाजार उतना ही घर से दूर होगा और पहचाने जाने का कोई भय या डर नहीं होगा । इस बात के पहले सिर्फ़ छू लेने का ऐसा चित्र उसके सामने कब घटित हुआ होगा, वह याद नहीं कर पाएगा । क्या उसके माता पिता उसके सामने कभी ऐसे आए होंगे या भौजाई के साथ भाई को कभी इस तरह इच्छाओं में सार्वजनिक रूप से तैरते हुए देखा होगा ? जितना इन बातों को पढ़ लेना अश्लील लग रहा है, क्या कभी शहर में चहलकदमी करते हुए उन हाथों, होंठों, बालों को कभी इसी तरह देखते हुए तब आप कुछ फ़र्क करते हुए चलते हैं ? क्या आपने इस लड़के में अपनी छवियाँ नहीं देखिन ? भले यहाँ लड़का लिखा है, क्या यहाँ लड़की लिखा होता, तब कुछ और प्रस्थान बिन्दु होते ? शायद इसका जवाब आप देना नहीं चाहते, भले आप उन दृश्यों का हिस्सा नहीं हुए पर मूक सहमति और भागीदारी आपकी भी रही होगी ।

मुझे इस पर अब कुछ नहीं कहना । शहर का यह हिस्सा जहाँ अभी बैठकर यह सब लिख रहा हूँ , जो मेरे सामने जैसे घटित हो रहा है, वह कुछ ऐसा है, जिसमें कुछ भी कहा जाना, एक तरह से मुझे बेपरदा कर देगा । ऐसा नहीं है, मैं इन पर कुछ कह नहीं सकता । पर कभी कभी लगता है, जो जैसा दिख रहा है, उसे वैसा कहा जाना भी ज़रूरी है । मैंने अपनी यही भूमिका तय की है । यह मेरी किसी भी तरह की कोई चालाकी न मानी जाये। यह भी एक मुश्किल काम है । कभी करके देखिये । ऐसा कहकर मैं यह नहीं कह रहा मुश्किल काम कहकर किसी तरह की ओट ले रहा हूँ । जब आप आ जाएँगे, मैं हट जाऊँगा । सच । मुझे पता है, जब तक आप नहीं आते किसी को तो यह ब्यौरे लिखने ही होंगे । इसलिए यहाँ बना हुआ हूँ।

दुनिया/ जो भी कल कहा है, वह बस एक झोंक न समझ लिया जाए इसलिए उसे फिर से कहना चाहूंगा। जो विचारधारा बनकर अपना काम कर रहे थे, वह विचार इसी तरह खोखला तो नहीं करते पर उनमें कुछ ऐसा होता है, जो खींचता रहता है । दुनिया को समझ लेने की कोशिश में हम अपनी नज़रों से दिख रही कितनी चीजों को समझ पा रहे हैं और उसकी तहों को कितना उघाड़ पा रहे हैं वह, इसे औज़ार से संभव लगता है । मतलब, जो मटेरियल या उत्पाद है, उसने ही इस दुनिया में हर वस्तु का निर्माण किया । ईश्वर भी उसी के बाद अस्तित्व में आया । वह पहले ख़याल ही रहा होगा । वास्तविकता के बनने से पहले, एक शक्ल लेने से दरमियान वह इसी तरह हमारे अंदर दाखिल हुआ होगा । कुछ ऐसे जैसे वह दिखाई न दे । हर वास्तविकता के बनने की एक ही प्रक्रिया है । भले उसका बनना कितना ही नकली और बनावटी क्यों न हो वह असली ही लगेगी ।

राकेश से पूछना है, वह किस तरह इस दुनिया को आकार लेता देखता है । वह उस इतवार कसी तरह ऊनी क्लास की एक घटना के ज़िक्र में अपनी बात कह रहा था । उसने कैसे उसे मुतमईन किया ? उससे पूछूंगा, क्या अतीत में प्यार भी हमारे अंदर इसी तरह अंकुरित हुआ होगा ? उसकी अभिव्यक्ति किस तरह हमने की होगी ? जिस तरह वह दिख रहा है, जिस रूप, आकृति, विचार, भाव की तरह हम उसे ग्रहण कर रहे हैं या दूसरे शब्दों में हम उसका जैसे उपभोग कर रहे हैं, यह भी क्या उतना ही कृत्रिम है, जितनी यह लिखित भाषा ? हो सकता है, यह बिलकुल इसके उलट हो पर एक बात तो तय है, शब्द ही हमारी कल्पनाओं को मूर्त या अमूर्त बनाते हैं । वही एक मात्र ऐसा उपकरण है, जिसका आविष्कार अपनी वास्तविताओं को वास्तविक महसूस करने के लिए हमने किया । अगर हम ऐसा नहीं करते, तब न हमारी दुनिया होती न हमारा कोई भविष्य होता ।

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