वापसी

यह जो शीर्षक है, इसे इसी तरह क्यों लिख रहा हूँ । यह कहाँ से लौटना है? मैं कहाँ आ गया हूँ? क्या आना नहीं था ? क्या इसे पड़ाव भी नहीं माना जा सकता ? पड़ाव किसी आगे आने वाले कल की तयारी में हो तो सबकी आँखें चुभने लगेंगी । वह घूरते हुए आगे बढ़ जाने जैसा होगा । ऐसा नहीं है, जिस जगह हूँ जहाँ से मुझे वापस चल पड़ना है । यह सतह पर मेरी शिथिलता को दिखाता है । जैसा अनमने होकर कुछ भी न कहने का मन न करता हो । यह छूट जाना है । जो सिलसिला कभी अंदर लगातार चलता रहता था, उसे क्यों रुक जाना पड़ा । यह अब पूछे जाने लायक नहीं रह गया है । मुझे लगता नहीं था, मेरे न कहने से इतनी सारी चीज़ें खुद मुझसे मेरी पकड़ से छूटती गईं । नज़र का चुक जाना इसी को कहते हैं । यह मेरा खुद को किसी दूसरी दिशा में चले जाना है । यह ऐसा समय है, जब कोई नहीं चाहता, आप लिखें । कुछ भी सोचें । कारखानों में इतिहास और भविष्य का नक़्शा बनाया जा रहा है । सब वहीं से नियंत्रित है । समझने के लिए जो रिक्त स्थान हो सकते थे, उन्हें भरा जा चुका है । जब सारी जगहों पर पहले से ज्ञान की प्रक्रिया सम्पन्न हो चुकी है, वहाँ किसी विवेक की क्या ज़रूरत ? नशाखोरों की कतार में आपको भी एक दिन शामिल होकर खुद को बचा लेना होगा । आप न सोचें, वह ऐसा ही सोचते हैं । आप क्या करेंगे तथ्यों पर जा कर । तथ्य जिस सत्य की निर्मिति में अपनी भूमिका निभाते थे, अब उसके पार भी एक दुनिया बसाई जा चुकी है । उत्तर सत्य की तरफ़ निकल पड़े समय में लिखना कोई आसान काम बनकर नहीं रह सकता ।

यह मारक समय हर लिखे हुए शब्द को जांच रहा है । उनके पास इस जांच के लिए अपने हथियार हैं । जिनसे वह कभी भी आपको चुप करवा सकते हैं । आप खुद चुप हो जाएँ, यह चुनाव आपका नहीं होगा । यहाँ कुछ भी अब सीधे तौर पर हमारे नियंत्रण में नहीं है । हमारी सबसे जोरदार टक्कर इसी विधार से होगी । हमारी सबसे जोरदार टक्कर इसी विचार से होगी । अगर इसमें हम बच सके, तब यह दुनिया कुछ कुछ हमारी बनाई हुई होगी । कुछ होगा, जिसे छूने पर अपनापन महसूस होगा । उसका खुरदरापन, कुछ मुलायम हिस्से, कुछ ठोस कुछ नरम सब हमारे हाथों से बना होगा ।

अब जबकि लगभग साल भर बाद लौट रहा हूँ, लिखने का सहूर झट से आ नहीं जाएगा । बहुत सारी चीजों पर लिखा जा सकता था, वह यहाँ नहीं लिख पाया । उनका दुख तो है पर उसी बात पर उलझने का कोई इरादा नहीं है । कोशिश करूंगा, इस बहुत लंबे समय में जहाँ जहाँ था, जहाँ नहीं था, क्या सोचता रहा, क्या नहीं सोचता रहा । एक लंबा समय दिल्ली से बाहर जो गुज़रा उस पर कायदे से लिखते हुए क्या क्या कह पाऊँगा, वह वक़्त बता पाएगा । तसवीरों को कई ठिकानों पर लगाता रहा था, उनमें से कुछ ऐसी किसी पते पर टाँक सका तो उसकी भी कोशिश करूंगा । मेरा संगीत सुनने और दृश्यों को देखने का सलीका कुछ बदल पाया है या नहीं यह आप और कुछ कुछ लिखते हुए मुझे अंदाजा होता रहेगा । एक बार फिर आपको इस सफ़र पर अपने साथ चलने के लिए बुला रहा हूँ । चौबीस घंटे में से बहुत थोड़ा सा वक़्त मांग रहा हूँ । उम्मीद करता हूँ, आप निकाल पाएंगे ।

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