अधूरी बातें..

खाली पन्ने : लिखने से पहले खाली पन्ने को देखा है ? सादा । जिसपर कुछ भी न लिखा हो । बिलकुल कोरा । मेरे दिमाग में यह सवाल नहीं आता, अगर इतनी देर तक यहाँ आँख गड़ाकर न देख रहा होता । इस बहुत देर तक देखने के बाद भी कुछ खास दिख नहीं रहा । वह सफ़ेद का सफ़ेद दिखता रहा । पिछले दस सालों का लेखा-जोखा मेरे सामने मेज़ पर पड़ा हुआ है । कुल पंद्रह जिल्द हैं । इसमें कुछ ऐसा वक़्त भी गुज़रा, जिसमें तीन-तीन महीनों में दो सौ पन्नों को भर दिया करता । वह भी क्या गति थी । एकदम करिने से लिखते हुए आप बहुत दूर तक चले आते हैं । एक ऐसे बिन्दु के पास जब आप उन लिखे हुए पन्नों की तरफ़ देखते भी नहीं हैं । ऐसा मेरे साथ क्यों हुआ ? क्या यह असमान्य सी घटना है या इसमें उस अतीत से भागते रहने और कभी पिछले दिनों पर कभी न लौटने की कोई इच्छा ? अभी कुछ भी दावे के सार्थ नहीं कह सकता ।

बुदबुदाहट : आज तारीख है, इकतीस जुलाई । साल दो हज़ार उन्नीस । दोपहर दो बजकर इक्यावन मिनट । डेरावाल नगर । बहुत सालों बाद आज वर्ड पर टाइप कर रहा हूँ । मुझे लगता है इसे भी लिख कर रख लेना चाहिए । एक पायरेटिड वर्ड फ़ाइल को ढाई सौ रुपये में इनस्टाल करवाकर जबसे लैपटॉप लिए घूम रहा हूँ, लगता रहा, कहीं पहुँच जाऊँ और अपने मन में आती सबसे पहली बात को कह दूँ । कमरा एक दम शांत है । कोई आवाज़ भी नहीं है । इसमें कौन सी बात मुझे लिख कर रख लेनी चाहिए ? पता नहीं ।

इधर इन दिनों बहुत सारे सपने आते हैं मुझे । हर रोज जब वापस उस दीवान पर अकेले लेटते हूँ, हर सुबह उस कमजोर सी नींद में बहुत सारे सपने मुझे घेर लेते हैं । हर रोज नए-नए सपने । उल्टे सीधे । गड़बड़ से । जैसे आज ही एक ऐसा सपना आया, जिसके ख़त्म होते ही नींद टूट गयी और मैं बुदबुदाया ‘साई फ़ाई’ । साइंस फिक्शन । सपना क्या था बहुत सारे लोगों को मिकलर टुकड़े-टुकड़े में कुछ था । एक दरवाजा था । जालीदार । उसे एक अदृश्य चीज़ आकर बार-बार खोले दे रही थी । हम उसके पीछे छिपे हुए हैं या क्या हैं, मैं समझ नहीं पाता हूँ । तभी एक सायंटिस्ट आते हैं और उस दरवाजे पर चुंबक जैसा कुछ लगा देते हैं । इसके बाद वह चीज़ दोबारा उड़ते हुए आती तो है लेकिन वह उस दरवाजे को खोल नहीं पाती । इसी सबमें इन दिनों बहुत सारी साइंस फिक्शन फिल्मों को ढूँढ रहा हूँ । बहुत सारे नाम मेरे दिमाग में हैं । ‘मून’, ‘अंडर द स्किन’, ‘ब्लेड रनर’, ‘एज ऑफ टूमोरो’ से लेकर ‘एनेलिहिलेशन, ‘स्नो पियरसर’, ‘चिल्ड्रन ऑफ मैन’, ‘लूपर’, ‘एल्सियम’, ‘ऑटोमेटा’, ‘आफ्टर अर्थ’, ‘इंटरस्टेलर’, ‘पैसेंजर’, ‘अराइवल’, ‘सैल’ और न जाने कितनी फिल्मों को डाउनलोड करके अपने पास रख लिया है । वक़्त नहीं है, इन्हें एक बारगी देख लेने का । बस यह खयाल ही मेरे लिए अभी काफी है, एक दिन होगा , जब इन सबको एक सिलसिले की तरह देख जाऊँगा ।

सवाल : यह भी क्या देश है, एक आंदोलन तीस से भी अधिक वर्षों से चल रहा है और भोपाल के मानव संग्रहालय में शासक नर्मदा घाटी की संस्कृति को संरक्षित कर चुके हैं । आप देख आइये । सब करिने से लगा है । मिट्टी के बर्तन । सृष्टि की उत्पत्ति का मिथक । उससे जुड़ी लोक कथाएँ । खुले चूहों के मुँह वाली कलाकृतियाँ । लोहे से बने बर्तन । मिट्टी के घर । लकड़ी के दरवाजे । वहाँ सब कुछ है । सिर्फ़ इंसान नहीं है । वह कहाँ हैं, इसका कोई जवाब किसी के पास नहीं है । वह शायद प्रस्थान कर चुके हैं । अपने इतिहास, भूगोल और भविष्य के कहीं आगे किसी धूल धूसरित सड़क पर नंगे पैर चलते हुए अनवरत आगे बढ़ते जा रहे हैं । कहाँ के लिए चल दिये हैं, कोई लक्ष्य भी है उनका ? वह कभी कहीं पहुंचेंगे तो वह दुनिया कैसी होगी ? सोच रहा हूँ क्या लेकर बैठ गया । पर क्या करूँ, यही दृश्य इस वर्तमान को गढ़ रहे हैं । होगा एक दिन, जब यह दुनिया भी डूबेगी ।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बाबा

खिड़की का छज्जा

उदास शाम का लड़का

बेतरतीब

हिंदी छापेखाने की दुनिया

आबू रोड, 2007

मोहन राकेश की डायरी