जैसा हमने चाहा

कुछ भी तो वैसा नहीं है, जैसा हमने चाहा । यह रंगों वाली बेरंग दुनिया । रूप, गंध, स्वाद कुछ भी नहीं । लगता रहा है, जिनके पास उसकी मर्जी नहीं है, उनके लिए यह दुनिया जीने लायक नहीं है । हम बस एक दिन से अगले दिन और अगले से फिर आने वाले दिन के इंतज़ार में घुट रहे हैं । जो जैसा होना था, उसमें रद्दोबदल की ताकत जितनी लग सकती थी, वह भी नहीं लग पा रही । ताकत जैसे कहीं है ही नहीं । वह जितनी तेज़ी से अपनी शक्ल बदलने में माहिर है । हम उस अनुपात में बहुत मंथर गति से चल रहे हैं । सब ताकत वाले उसे तय कर रहे हैं । ताकत ‘पूंजी’ से है लेकिन उसके पीछे एक पूरा तंत्र है । हम बेबस हैं । इतने बेबस कि उसके समांतर कुछ भी खड़ा करने के लिए लगभग वही अवयव चाहिए । पूंजी । यहीं हमारी भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है । यहाँ हमें सपने चाहिए । कुछ पढ़ी हुई किताबें । कुछ पहले के समय में आजमाए हुए नुस्खे । वह लोग जो खुद को बचा सके । उनके लिखे हुए कागज । यही तय करेगा, हम कितनी लंबी लड़ाई करने के लिए खुद को तय्यार कर रहे हैं । जो दोहराया हुआ है, उसे उसी तरह दोहराया नहीं जा सकता । उससे हम कुछ अंदाज़ा लगा पाएंगे । वह जिससे हमारी मुठभेड़ होने वाली है, हो रही है, उसे कहाँ तक भेद पाने में हम काबिल हैं । हमें वहाँ वहाँ मार करनी होगी, जो उसके लिए अकल्पनीय हो । ऐसा कैसे कर पाएंगे, इसलिए दुनिया की समझ बना लेना बहुत ज़रूरी है । यह बहुत आसान नहीं है । अंतर्विरोधों के सामने आने पर वह वैसे ही रह पाएंगे, कहा नहीं जा सकता ।

हम भी कैसे होते रहेंगे, यह भी नहीं पता । इसलिए बहुत लंबे रास्ते पर चलने के लिए ज़रूरी है, छोटे-छोटे पड़ावों को तय कर लेना । इसके बिना थकान, ऊब, दोहराव, बेसब्री सब हमारे भीतर से निकल कर बाहर आने लगेंगे । क्या हम ऐसा चाहते हैं ? बिलकुल नहीं । कोई तो दुनिया का टुकड़ा ऐसा हो, जैसा हमने चाहा । वह भी कोई दिन या शाम के बाद ढलते सूरज की तरह कोई सपना होगा । एकदम से नहीं । उसके भी कई सिलसिले होंगे । आसान बिलकुल नहीं होगा, वहाँ तक का सफ़र । हो सकता है, हम सफ़र में ही रहें । मुकाम कभी आए ही नहीं ।

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