बेतरतीब

किसी भी तरह तो इस वक़्त को कह नहीं पा रह हूँ । अंदर ही अंदर कितना कुछ बीतते हुए यह महसूस न होना कि भाषा भी साथ नहीं देती । लगातार कोशिशों से उसे इस लायक बनाया जा सकता था । एक अभ्यास जो हरदम किए जाने की माँग करता है, उसमें पीछे छूट जाने या किसी से आगे निकल जाने का कोई सवाल नहीं है । बात सिर्फ इतनी सी है, जहाँ से हम चीजों को देख सकते हैं, वह क्यों देख कर वैसी नहीं कही गई ? यह कभी-कभी तो मुझे ऐसा समय लगता है, जहाँ जो जैसा है, उसे वैसा कह पाना भी बहुत मुश्किल है । यह जो 'अभिधा' में न कह पाना है या ऐसे दबाव से घिर जाना है, जो प्रकट रूप से दिख भी रहा है और कुछ कह न पाने की कमजोरी में उसे छिपा ले जाने की चालाकी भर बनकर रह जाता है । इसे चालाकी के अलावे क्या कह सकते हैं?

यह जो न लिख पाना है, इसे भी दर्ज किया जाना चाहिए । दर्ज इसलिए के जब यह साल बीत जाएँगे, तब हमारे पास एक याद की तरह कुछ सबूत होंगे । एक दिन, एक शाम, एक पल ऐसा भी था, जब हम भीतर-ही-भीतर कुढ़ रहे थे । जो कहना था, उसे न कहकर बहुत कुछ ऐसी भूमिका को बनाने में खर्च कर चुके थे, जिसकी कोई ज़रूरत भी नहीं थी । इसे किस तरह तो समझा जा सकता था । क्या वह अवसर भी अब चले गए ? लेकिन मन कहता है, संभावनाएं हमेशा बची रहती हैं । 

वह बची रहती है, कहीं किसी कोने में । छिपी हुई सी । ऐसे में जिन स्थापनाओं को अपने लिए कभी बनाया था, उन पर वापस लौटकर जाने की ज़रूरत है या उन्हीं से काम चलाया जा सकता है, इसे एक बार फिर से देखना होगा । उनमें जो संदेह या विश्वास थे, जो संकल्पनाएँ कभी लिखित रूप में सामने नहीं थीं, क्या उन्हें किसी कागज के कोने में या किसी डायरी के आख़िरी पन्नों पर आज के लिए बचाकर छोड़ दिये गए अवकाश में लौटना था । कुछ सवाल, जिनके उत्तर कभी खोजने के प्रयास पहले नहीं किए गए, क्या वह अनसुलझे रह गए या उन्हें सुलझाने के मौके अब बनाने की कोई ज़रूरत नहीं रह गयी है । भाषा का अमूर्त हो जान या उसमें छवियों, भावों और संवेदनाओं का गुम हो जाना सबसे पहला प्रस्थान बिन्दु है । क्या हुआ इस दरमियान जो हम चाह कर भी बचा नहीं पाये । जो सामने घटित नहीं हो रहा था, उस नेपथ्य में हमारी भूमिका को भी कोई होगा, जो हमसे सवाल करेगा । वह सवाल कर पाये, इसलिए ज़रूरी है, कुछ लिखकर अपनी तहों में रख लिया जाये । क्या हम बहुत अधीर होकर इस वक़्त के बीत जाने की कल्पना में खुद को व्यस्त कर लेने की इच्छा से भर गए थे या अपनी प्रतिक्रिया देते हुए जितनी भी कोशिश या युक्तियाँ थीं, उन्हें टटोलने के बाद किसी अकेले कमरे के एकांत में चुप गुमसुम से बैठे खुद को कोसते हुए दूर से देखने की कल्पना कर रहे थे । 

सवाल बस इतना सा है । हम कल्पनाओं का अवकाश कब तक ले सकते हैं । क्या यही हमारी ओट है । कुछ समझ नहीं पाता । 

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