हंस में आना

यह बात लगभग दो हज़ार छह-सात के आस पास की रही होगी, जब हमने ‘हंस’ को शिवाजी स्टेडियम पर अखबारों के साथ पत्रिकाओं के बीच देखा। प्रेमचंद ने इस नाम से पत्रिका निकालना शुरू किया था, यह पता था, लेकिन यह नहीं पता था, सन् 86 से राजेन्द्र यादव इस पत्रिका का पुनर्प्रकाशन और सम्पादन कर रहे हैं। तब हम लोग ग्रेजुएशन के आखिरी साल में थे। यह तय नहीं था, आगे क्या करेंगे। बस दो साल के लिए एम ए हिंदी में चले आये। तब लगता, पढ़ेंगे नहीं तो लिख कैसे पाएंगे। क्या लिखेंगे, कैसे लिखेंगे कुछ नहीं पता था। बस एक ही ख़याल था, लिखेंगे। 

वह कुछ वक्त भी ऐसा था, जब मन किये रहता, लिखो और उसे कहीं छपने के लिए भेज दो। शायद अपने लिखे हुए को सबके साथ बाँटने की इच्छा तब बहुत रही होगी। फिर जैसा होता है, जो पढ़ता, जिस विधा में पढ़ता वैसा ही लिखने के लिए सोच कर कुछ दिन लगा देता। एक डायरी में कविताओं के ख़ाके बनाये, आज वह पता नहीं कहाँ होगी। वह कहीं खो गयी । उसे कभी ढूँढने की कोशिश नहीं की। एक कहानी लिखकर किसी पत्रिका के द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में भेजी। वहां से जवाबी खत में सदस्यता लेने को कहा गया। कहानी वहीं छूट गयी। फिर कभी नहीं लिखी। उपन्यास एक एक दिन में ख़त्म किये पर इतना सारा कह पाने में हमेशा मुझे लगता, अभी इसका वक़्त नहीं आया है। 

हंस में भी एक कहानी भेजी थी। उनकी तरफ से संपादक का पोस्टकार्ड आया। ‘आपकी कहानी प्रकाशित नहीं हो रही है, आप कहानी कहीं और भेजने के लिए स्वतंत्र हैं’। मैंने आज तक उनकी दी इस स्वतंत्रता का उपयोग नहीं किया। वह कहानी (जिसे मैं कहानी मान रहा था) भी कहीं गुम हो गयी। एम ए के दिनों के बाद कभी इस साल मई से पहले कविताओं को उस गंभीरता से अपनी बातें कहने के लिए नहीं चुना। मुझे लगता रहा, यह मेरे लिए नहीं है। कविताएँ लिखता नहीं था, पर पढ़ता ज़रूर था। विनोद कुमार शुक्ल, राजेश जोशी, असद ज़ैदी के साथ उदय प्रकाश की कविताओं को अपने सबसे निकट पाता हूँ। उनका अनुभव संसार और अपने परिवेश को अनुभूत कर पाना मुझमें वैसे रच जाए, यही सोचता रहता। तब भी कविताएँ कभी कह नहीं पाया। उन गुज़रते सालों में कुछ ऐसा था, जिसमें मेरे जैसे घुन्ने, चुप्पे लगने वाले लड़के के लिए मुझे ‘डायरी’ सबसे मुफ़ीद लगी। 

डायरी ने मुझे चुन लिया हो जैसे। इतने सालों में न जाने क्या क्या और कैसे कैसे कितना कुछ कह दिया होगा। कहा इसलिए कि वह मवाद की तरह बहता। अंदर रिसता रहता। कहने में जो कहना है, लगा यहीं उसे अपने अंदर भी बचाये रह सकता हूँ। डायरी का एक ही उस्ताद मैंने माना। मोहन राकेश। मोहन राकेश की डायरी सबसे पहले साहित्य अकादमी की लायब्रेरी में अचानक मेरे हाथ लग गयी। खाकी रंग की जिल्द। उसकी पीठ पर किताब का नाम लिखा था। यह कोई नौ दस साल पहले की बात होगी। तबसे न जाने पिछले साल तक कितना इंतज़ार किया। अगर पिछले साल अगस्त में लखनऊ न आया होता तो बहुत बाद में जान पाता, ‘राजपाल एन्ड संस ने मेरी पैदाइश के साल के बाद उसे अब जाकर दोबारा प्रकाशित किया है। फ़िर डायरियों को लेकर हम कुछ खास सलीका अपने अंदर बरत ही नहीं पाए, इसे जानते हुए भी कभी डायरी लिखना कभी छोड़ नहीं पाया ।  अब जबकि इसके कुछ हिस्से ‘हंस’ के अक्टूबर मास के अंक में प्रकाशित हुए हैं, नहीं जानता मुझे कैसा हो जाना चाहिए? 

यह कभी किसी के सामने आ भी पाएंगे, हमेशा यही सोचता था। उससे भी ज़्यादा यह कि इन हिस्सों और मेरी डायरी का किसी की इच्छा की बन जाना क्यों ज़रूरी है? मेरे पास अभी भी कहने को बहुत कुछ है। परंतु अभी यही कहना चाहता हूँ कि जब इस अंक में अपने लिखे अंशों को ख़ुद पढ़ रहा था, वह लिखे जाने से बहुत अलग अनुभव लगा। लगा जैसे कोई भीतर से उन छपे हुए शब्दों को बोलते हुए दोहरा रहा है। उनकी अनुगूंज कुछ मुझे भी बदलेगी और जो उनसे गुज़रेगा, वह भी शायद ऐसे या इनसे मिलते जुलते भावों, संवेगों और अनुभूतियों के पास चला आएगा।

इतनी सारी बातें कहते हुए भी मैं यह नहीं कह पा रहा हूँ, जब अक्टूबर की तीन तारीख को जलेस की कार्यशाला (रचना प्रक्रिया और विचारधारा) के समापन के एक दिन बाद, मुझे नहीं पता था, जब हम जयपुर के उस अपरिचित बाजार में सहसा एक दुकान में दाखिल होंगे और उनसे ‘हंस’ मांगने पर वह तुरंत यह अंक सामने रख देंगे और, तब, अनुक्रम में अपना नाम देखकर बिल्कुल उस क्षण कैसा महसूस होगा? जब भी मैं अपने नाम के वहाँ होने की बात को अपने अंदर याद करता हूँ, हर बार थोड़ा और भीग जाता हूँ। यह नमी मुझमें लिखने को बचाये रहे, बस यही चाहता हूं। फ़िर जिन शुरुआती पत्रिकाओं से थोड़ा पढ़ना और लिखना सीखा, उनमें ‘हंस’ सबसे पहले आती है। 

आप समझ सकते हैं, उसमें उसके पाठक की डायरी के अंश आने पर वह पाठक कैसा हो गया होगा।

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