दिन पहला

कोहरा है। ठंड है। दिन लगभग ढल चुका है। मैं यहाँ कमरे में बैठकर सोच रहा हूँ। इस साल के बँटवारे में जो मेरे मन में बहुत सारी इच्छाएं हैं, उनका क्या होगा? वह पिछले कैलेंडर से इस दिन तक मेरे साथ चली आई हैं। आगे भी इन्हीं के इर्दगिर्द अपने सपनों को बुन रहा होऊंगा। इनमें थोड़ी सी मेरे आस पास की दुनिया होगी और बहुत सारी मेरे अंदर से बाहर आ रही होगी। यह स्वार्थी होना भले लगे पर यह ऐसा ही है, मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता। दिन इससे पहले इतने बेकार कभी नहीं थे। नींद बहुत आती है। उठा नहीं जाता। सूरज खिड़की से अंदर आने लगता है, तब तो आँख खुलती है। सुबह जल्दी उठने से दिन बहुत बड़ा हो सकता है, अभी जो सुबह ग्यारह के बाद मेज़ पर आ पाता हूँ उसे सात और आठ के बीच ले आना बहुत बड़ी बात होगी।

जो किताबों के ढेर से मेज़ अटी पड़ी है, उनमें से कुछ जिल्दों को पढ़ने के लिए फुर्सत से बैठने की इच्छा सिर्फ़ बनी न रहे, कई-कई घंटे बैठे हुए उन्हें पढ़ भी सकूँ। और मैं क्या चाहता हूँ? यह तो बहुत ही सतह पर तैर रही हैं। उन्हीं में से बहुत को कह दूंगा और बहुत सी छिपा ले जाऊंगा।

एक किताब, एक नौकरी की टेक पर पिछला पूरा साल बीत गया। मेरी कोशिशें कुछ कम रह गयी होंगी। इन भविष्य में छिपे नक्शों में कुल यह दो नक़्शे भी होंगे। उन तक कभी लगता है पहुँचने वाला हूँ । यह साल उन तक एक बार पहुँचा दे बस। ऐसी बहुत सी कामनाओं से मन उबरता उतरता रहा है। फ़िर न जाने यह क्यों हुआ, कागज पर लिखना एकदम कहीं पेड़ की ओट में छिप जाता है। बार-बार हाथ पकड़कर उसे लाता हूँ, बार-बार वह वहीं भाग जाता है। पिछले दो महीनों में दो पन्ने की औसत रही तो तीन सौ पन्नों वाली डायरी कब भर पाएगी, यही सोचता रहता हूँ।

रचनात्मकता का अपना ही हिस्सा किताब है। कोई उत्प्रेरक न मिले, तब वह भीतर होते हुए भी कुछ खास उपलब्धि नहीं बना सकेगी। इन दिनों में यह बात समझ आई है। यह दोहराव, ऊब, लगातार एक ही हालात में पड़े रहने के बाद मेरे मन का हासिल रहा होगा। दरअसल अपने अंदर लिखने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रह गया हूँ, बस कामना है, यह उत्साह न होते हुए भी लिखना बचा रहे। बच कर शायद वह बातें जो नहीं कह पाया हूँ, उन्हें कोई मुकम्मल मंज़िल मिल सके। मुझे अभी तब नहीं मिली तब उन्हें ही सही ठिकाना मिल जाये। यही सोच लिखने बैठ जाता हूँ। कभी इसके बिलकुल उलट सोचता हूँ। कोई मंज़िल न मिले और यही सोच नहीं लिखता। बात उलझाने लगता हूँ। जैसे अभी कर रहा हूँ। बेमतलब।

मुझे पता है मेरे अंदर किस बात की कमी है। यह रवानगी का थोड़ा सुस्त हो जाना है। मैं चाहता हूँ, मैं जो अपने बचपन में अपने माता-पिता को उन पुरानी तसवीरों में देखता रहा हूँ, उसका छोटा हिस्सा भी अगर मेरी ज़िंदगी में अब तक आया होता, तब शायद कहानी कहीं किसी दूसरे मोड़ पर होती। यही वह मूलभूत तत्व है, जिसकी अनुपस्थिति को किसी को समझाना मेरे बस की बात नहीं है। मेरी सपनीली दुनिया में कोई ऐसा दिन ही नहीं आया, जब ऐसे एहसासों से ख़ुदको भरा पाता। वह जो ख़ुद इस दौर से गुज़र कर यहाँ तक आए हैं, उन्हें मेरी मनः स्थिति का पता कैसे लगता होगा, इसका भी कोई मापक किसी वैज्ञानिक शोध से मेरे संपर्क में नहीं है। वह कभी बताते ही नहीं है, कि वह जान गए हैं। मेरा सबसे बड़ा सपना यही है। वह किसी तरह जान सकें। वह नहीं नहीं जानेंगे, तब मैं अपनी ज़िद में आने के मौकों को अपने अंदर टटोलने लग जाऊंगा। यह मैं लिख रहा हूँ तब शायद हो सकता है, अंदर ही अंदर वह उधेड़बुन मेरे अंदर कहीं चल रही हो, जिसकी यह पहली टोह भर है। जो यहाँ पहले पहल दिख रही है।

मेरी कल्पनाओं में बहुत नाज़ुक से धागे हैं। उन्हें जैसे ही बाहर निकालता हूँ वह झिलमिलाने लगते हैं। मेरी कल्पना में यह दूरी भी नहीं थी। यह दूरी भौतिक रूप से तुमसे तो है ही, वह सारे अधबुने ख़याल, अधूरे सपनों की ख़्वाबगाह, उन अनछुए स्पर्शों का अदृश्य स्पंदन, सब कहीं धीरे-धीरे मरने लगता है। यह इच्छाओं का दमन है, जिस पर चलता हुआ यहाँ तक आ गया हूँ। यह साल इस तरह इस पृष्ठभूमि पर मेरे भीतर उन स्याह दिनों की बही बनकर न रह जाये, इसी कामना में यहाँ लिखे दे रहा हूँ। नहीं चाहता परछाईं की तरह यह सब मेरा पीछा करते हुए यहाँ भी साया बने रहें।

थोड़ी रद्दोबदल, थोड़ा रफू करते रहना हमारी फ़ितरत बन गयी है। उसी में इसी साल का कोई दिन होगा, तुम्हारे साथ कहीं नौकरी के बाद अपनी किताब के सफ़ों को पढ़ते हुए उस ढलते हुए सूरज में डूबते हुए हम आपस में डूब रहे होंगे। यह सपना ही मेरे इस साल का पहला दिन होगा।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कई चाँद थे सरे आसमां

मुतमइन वो ऐसे हैं, जैसे हुआ कुछ भी नहीं

टूटने से पहले

मोहन राकेश की डायरी

खिड़की का छज्जा

बेरंग बसंत

छूटता मौसम