राकेश दिल्ली आया था

कहने के लिए मेरे पास बहुत सारी बातें इकठ्ठा हो गयी हैं । कहाँ था इतने दिन ? क्या करता रहा ? क्यों कभी यहाँ वापस लौट कर लिखने का मन नहीं हुआ ? कभी हुआ भी होगा, तब क्यों नहीं आ पाया कुछ भी कहने ? इनमें कोई सिलसिला नहीं है । आपस में एकमेक, गुत्थम गुत्था होती बातें हैं । किसी सिरे से हम कहीं भी जाने को स्वतंत्र हैं । वह कहीं भी पहुँचा देंगी । जैसे कहाँ से शुरू करूँ, कुछ समझ नहीं पा रहा । इधर राकेश दिल्ली आया । एक रात रुका । हम फ़िर अपने पुराने दिनों में घिरते रहे । उसे अपनी लिखी कुछ कविताओं को पढ़वाया । वह भी लिख रहा है । कभी किसी को दिखाये बिना । जैसे एक लिखी है उसने, स्कूल पर । जहां वह पढ़ाता है । उसने कहा था, ड्राफ़्ट भेजूँगा । देखना, कितनी तो काँटछाँट करते हुए किसी एक पंक्ति पर मुकम्मल रुक पाता हूँ । इंतज़ार कर रहा हूँ । वह भेजेगा ज़रूर । कभी-कभी तो लगता है, छिन्दवाडा उसे उकता रहा है । जैसा हमारा राकेश है, उसे वह जगह अपने अंदर समा नहीं पा रही । क्या आप कुछ-कुछ समझते है, हम कभी क्यों पहचान में नहीं आना चाहते ? वह छोटा सा शहर, उसमें राकेश दूर से भी दिख जाएगा । वहाँ कोई दूसरा राकेश नहीं है । वह अकेला है । अपने में खो जाने को लेकर आश्वस्त । कविता करेगा और वह अगर छप जाएगी, वह बच नहीं पाएगा, पहचाने जाने से । शायद वह कोई ऐसी जगह चाहता है, जहाँ उसकी यह पहचान उस पर हावी न हो जाये । तब शायद हम कोई ऐसी जगह ढूँढ़ते हैं, जहाँ हम ख़ुद होकर रह सकें ।

वह इसके लिए लिखता है । पर कभी किसी को बताता नहीं है कि लिख रहा हूँ । उसके जो बिम्ब होंगे, जिन रूपकों से वह कहेगा, उनमें वह जगह कितनी होगी कह नहीं सकता । यह भी नहीं पता, वह जिस परिवेश में रहता हुआ अपने लिखने को भूल जाता है, वह कैसे उसकी पंक्तियों में आ सकेगा । यह जो हमारा उदासीन हो जाना है, क्या वह कभी उसे महसूस करता भी होगा ? अब जबकि वह उसी तरह अपनी गति को अपने अंदर उतरता हुआ महसूस नहीं करता है, क्या तभी वह अपनी ऊर्जा, जिसे रचनाशीलता में बदल जाना था, वह उसे ऐसी जगह व्यय करता रहा है, जहाँ उसे लगता ज़रूर है ,वह संवेदनाएँ, वह ऊष्मा, हाथों और हथेलियों की गर्माहट उसमें बची रहेगी, पर ऐसा होता नहीं है । सतह पर भेले उसे यह दृश्य ऐसा ही घटित होता हुआ दिखे पर अंदर कहीं ऐसी हलचल है, जिसमें कुछ प्रकट न कर पाने कि अपनी अक्षमता को वह इस बात से छिपा लेना चाहता है । वह भले कहता रहे, उसके पास उत्प्रेरक नहीं हैं, वह चीजों को बारीकी से देखना भूल गया है । उन चीजों को जो उसमें किसी कविता की पंक्ति को उगने देती थी । जो वाक्य उसमें रेत के अणुओं की तरह भुरभुरे होकर उसकी त्वचा से चिपक जाते थे । वह कहता तो ऐसे कहता, जैसे हवाएँ बहती हैं । उसके इसी कहने के इंतज़ार में हम सब रुके हुए हैं । वह आ जाए, तब साथ चलेंगे । हवा अभी भी भारी और चिपचिपी है राकेश ।

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