उस कविता के बाद

यह बहुत अजीब बात है । इस लिखने का ख़याल मेरे भीतर घटित हो जाने के बाद भी वह क्षण कहीं दर्ज नहीं हैं। कहीं कोई निशान तक नहीं है। अगर है, तो मेरे मन में पड़ी कुछ रेखाएं हैं, जिन्हें दोबारा या तो कहकर या लिखकर ही सबको दिखा पाउँगा। इसके अलावे वह क्या होगा, कैसा होगा, कुछ नहीं पता। मन में बहुत सी ऐसी बातें हैं । हरदम उनके तकाज़े हैं। किस तरह यह जगह जब नहीं थी, तब भी यह प्रक्रिया इसी तरह स्थगित थी, जैसे पिछले दिनों से यहाँ सब बंद है। अपने दोस्त को उस कविता में लाने के बाद उसका कुछ कम दोस्त रह गया शायद। वह धागा अपने अंदर मैंने ही तोड़ दिया। मिलने पर उन्हीं बातों को दोहराए जाने के पलों में उसी तरह साथ छोड़ देना मुझे बेहतर लगा। हम दोनों के लिए यह ठीक ही रह होगा। कितने साल का साथ रहा, यह कोई बड़ी बात नहीं है। ज़रूरी बात यह है, वह साथ कैसा रहा? वह उम्र में मुझसे कुछ बड़ा है। उसके सपने मुझसे पुराने और ज़्यादा आवाज़ वाले रहे होंगे। उनकी गूंज और प्रतिध्वनि मैंने भी उसके साथ सुनी हैं । वह जिस तरह बाहर की तरफ़ जाता है लगता है, उससे कई गुना तेज़ रफ़्तार से वह अपने अंदर सिमटता रहा । वह पंक्तियाँ इस स्थगन काल में प्रवेश के बहुत दिनों बाद, मेरे अंदर, इसकी पहली आहट की तरह नज़र आईं। क्या जो अनुभव मैंने वहाँ कह दिये, वह पल हमारा साझा अतीत नहीं रहे होंगे ? उसे जैसा मैंने महसूस किया, वह उसे भी वैसा ही लगा हो तब क्या करूँगा ?  कुछ नहीं । वह कभी बताएगा ही नहीं ।

मैंने सोचा था, इस कविता पर कभी किसी बहाने से अपनी रचना प्रक्रिया पर बात करूंगा। आज जब लिखने बैठा हूँ वह दिन मेरे सामने घूम गए हैं। हम दोबारा दोबारा उन्हीं जगहों पर हैं, जहाँ हम अक्सर बैठ कर बातें किया करते थे। वह जगहें इसी दिल्ली में कहीं बिखरी रह गयी हैं। मैं कभी उन जगहों पर वापस जाने की कामना नहीं करता। कोई पुरानी याद वहां फेंच की तरह चुभे, यह मुझे ठीक नहीं लगता। कभी तो ऐसा होता है, उन बहसों और निरर्थक लगती बातों में हमें कभी करना ही नहीं चाहिए था । उनमें अब कोई रस नहीं लगता। वह भी कोई महत्त्वहीन दिनों का ब्यौरा देते तफ़सरे ही होंगे, जिसमें उसका इस शहर से जाना भी दिख जाएगा। अधूरे सपनों की तरह वह भी अधूरा यहाँ से चल गया। उसकी गर्दन न नीचे झुकी न उसने उसी झुकी गर्दन से अपनी अकड़ गयी पीठ को झटके से झिटक दिया । वह गया । वह चलता गया और एक पल ऐसा आया जब वह सभी दृश्यों से एक साथ चलते हुए बाहर निकल गया । उसे विनोद कुमार शुक्ल की किसी कविता ने नहीं अपने मन की स्मृतियों के अपने अंदर से निकाल देने की कोशिश ने उसे अनुपस्थित कर दिया । वह वक़्त वहीं ठहरा कौन सा हमारा इंतज़ार किया करता होगा । यही सोच वह अभी अपनी छत पर होगा । ढलते सूरज की तरह अपने ढलते सपनों को निहारता हुआ कैसा लगता होगा ? क्या वह कभी सोचता भी होगा, यह सब मेरे अंदर उससे बहुत पहले कभी घटित हो चुका है? शायद इसके बाद उसके मन में बरसात की बूंद की तरह कुछ टपके । टपाक ।  

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