लौटते हुए..

बहुत दिनों बाद जब आप कोशिश करते हुए वापस लिखने पर लौटते हैं, तब लगता है, कितना तो सब पीछे छूट गया । कैसे उसे कह पाऊँगा ? जिन दिनों नहीं लिख रहा था, तब भी बहुत कुछ अंदर घटित हो रहा होगा । इन्हें उन्हीं गर्मी के दिनों की भेंट नहीं चढ़ाना चाहता । अभी बस इतना ही कह पाऊँगा, जो ख़ुद छटपटा रहा था, उसी को किसी और तरह कहने में लगा हुआ था । यह सिर्फ़ सतह पर घटित नहीं हुआ । उसकी कई सारी परते हैं, जिन्हें उघाड़ते हुए हम वहाँ पहुँच सकते हैं, जहां से यह बात कह रहा हूँ । एक बार उदय प्रकाश ने कभी कहा, यह दुनिया जिस तेज़ी से बदल रही है, अगर कोई उसका गढ़ा संश्लिष्ट ब्यौरा ही कह पाये तो यह उस भाषा और लेखक के रूप में उसकी उपलब्धि होगी । यह वाक्य लगता जितना आसान है, उतना सामने घटित हो रही घटनाओं को समझ पाना और उन्हें एक कहने लायक ढाँचे में लाना सतत अभ्यास की माँग करता है । जिस तरह से कला रूपों ने हमारे यथार्थ को प्रकट या अभिव्यक्त करने के अवसर दिये हैं, उस अनुपात में उन्हें समझने के नए औज़ार हम अभी तक नहीं बना पाये हैं । वह किस तरह वास्तविकताओं को समझते हैं, उन्हें रचते हैं, इन दोनों पहलुओं को समझने और उसमें उतरने के लिए हमें ब्यौरों की ज़रूरत है । यही भविष्य की चुनौतियों को समझने और भविष्य के सपनों को गढ़ने में हमारी मदद करेंगे । इनके विस्तार के बिना कुछ भी बारीकी से हमें समझ नहीं आने वाला । जो जैसा घटित हो रहा है, हमें सिर्फ़ उसे वैसा कहना है ।  बस । आगे का नक्शा अपने आप बनता चला जाएगा ।

इस दुनिया के भीतर हम सबके रहते हुए कई सारी दुनियाएँ एक साथ रह रही हैं । उन दुनियाओं में जो घट या बढ़ रहा है या जो भी जैसा भी बदल रहा है, उसे भी कहने लायक भाषा बनाने में व्यक्ति को निजी तौर पर बहुत अधिक श्रम करने की ज़रूरत है । ज्ञानरंजन एक बातचीत (2011) में कहते हैं, जब निर्मल वर्मा ने जब कहा, कहानी का अंत हो गया, तब उनका अर्थ यह कतई नहीं था कि कहानी का अध्याय बंद हो चुका है । उनका बहुत सरल सा अर्थ था । यह विधा मानव सभ्यता के संश्लिष्ट होते समय और उसकी चुनौतियों, उसके सवालों के जवाब नहीं दे पा रही । उसके पास उसकी समस्याओं के कोई उत्तर अब शेष नहीं बचे हैं । वह इस बात को भी रेखांकित करते हैं, कि सम्पन्न भाषाओं में यह कहानी एक डूब चुकी विधा बनकर रह गयी है । अब यह सिर्फ़ अविकसित देशों या पिछड़ी हुई भाषाओं में जीवित है । जिसमें वह अफ्रीका, स्पेन, भारत की भाषाओं का ज़िक्र करते हैं । इन कहानियों की जगह उपन्यासों ने ली । वह अपनी महकाव्यात्मकता के साथ दोबारा वैश्विक पटल पर सामने आए हैं । कहानी की जो माँग है, जो उसकी अभिव्यक्ति है, वह अपने समय के खुलासे करने में अब असमर्थ है । अब महावृतांतों की आवश्यकता है ।

क्या आपको नहीं लग रहा, जहां से हमने अपनी बात शुरू की थी, वह इस बिन्दु तक आते-आते कई और खुलासे करती हुई लग रही है । नए लेखकों को इसे चुनौती मानने से पहले इसे एक अवसर की तरह लेना चाहिए । वह इस तरल होती जा रही दुनिया और उसके अवास्तविक लगते यथार्थ को पकड़ने में हमारी मदद करेंगे । आप आइए । लिखिए । जितनी तरह से कह सकते हैं कहिए । यह इस कदर आकार लेती दुनिया है, जिसे समझना किसी एक स्थापित साहित्यकार के बस की बात अब नहीं रह गया है । इसके विपरीत कभी-कभी तो यह लगता है, उनकी बनाई दुनिया और इस दुनिया में मूलभूत रूप से कई अंतर आ गए होंगे । यहाँ तक हो सकता है, उनकी पुरानी दुनिया के चिन्ह धीरे-धीरे लुप्त या गायब होते जा रहे हों और आप उन्हीं से उम्मीद लगाए बैठे हों । यह वक़्त किसी के इंतज़ार में ज़ाया करने का नहीं, ख़ुद अभ्यास करने का है ।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कई चाँद थे सरे आसमां

मुतमइन वो ऐसे हैं, जैसे हुआ कुछ भी नहीं

मोहन राकेश की डायरी

चले जाना

खिड़की का छज्जा

बेरंग बसंत

वक़्त की ओट में कुछ देर रुक कर