देह

पता नहीं क्यों लगता है, हम सबमें देह का आकर्षण लगातार बढ़ रहा है। एक-दूसरे को आदिम अवस्था में खुलेआम देखने की इच्छा का विस्तार जिस तरह से हुआ है, उसे सिर्फ़ यौनिकता से समझ लिया जाएगा, ऐसा नहीं है। मेरे ख़याल से यह एक धुरी है। इसके चारों तरफ़ सिर्फ़ हम नहीं हैं, हम बर्बर बनने की प्रक्रिया में संलग्न एक इकाई हैं। यह जो कुछ भी है, जैसा भी है, इसमें जिसे हमारी इच्छा बनाया जा रहा है, यह सब इतना भी निर्दोष नहीं है। यहाँ मैं किसी तरह की कोई व्याख्या करने की गरज से नहीं भर गया हूँ, न इसे दक्षिणपंथी राजनीति के एजेंडे का हिस्सा ही समझा जाना चाहिए। यह सिर्फ़ और सिर्फ़ हम सबको मनुष्य से घटाकर लिंग और योनि जैसे विभाजनों में बाँट देना है। यह कुछ उन भावों के उभरने जैसा है, जैसे हम किसी सवारी गाड़ी में कहीं छिपे हुए स्तनों के बीच की दिख गयी खाली जगह को देखकर संभोग के विचारों से भर जाते हैं। यह जितना शब्दों से अश्लील लग रहा है, उतना इस क्रिया में संलग्न उन दो व्यक्तियों के मध्य हुई उस संधि का एक छोटा सा हिस्सा है, जहाँ उनके सवालों में अभी सिर्फ़ देह की सुचिता के प्रश्नों का अब कोई मूल्य नहीं है। अगर एक-दूसरे की समान इच्छा से एक-दूसरे की देह को भोगा जा रहा है, तब इसमें किसी भी तरह से कोई विसंगति नहीं है। अगर है, तब वह सिर्फ़ इतनी सी है, जहाँ उसके सवालों के घेरे में किसी लड़के या लड़की के कमरे में चुपके से या सबको बताकर जाना तो शामिल हुआ है पर वह अभी भी जाति के असहज सवालों से टकराने से बचते हैं। 

उनकी इन चालबाजियों में धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र जैसे उप विषयों पर विचार शून्यता है। लगता है, वह अपनी हत्या होने से डरते हैं। उन्हें इस तरह की जटिलताओं से परे कुछ देर अपने नायक या नायिका के साथ हमबिस्तर होना बेहतर विकल्प लगता है। वह सामाजिक या सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़े हुए मूलभूत सवालों के बगल से निकल कर, प्रदत्त विकल्पों में से किसी खाली कमरे की तलाश ख़त्म होने पर सहवास के अलावे कुछ नहीं करना चाहते। अगर आपको ऐसा नहीं लगता, तब थोड़ा अपने आस-पास नज़र डालिए। सच इसके आसपास ही अपना लिंग सहलाता हुआ मिलेगा। यह समाज मूलतः पुरुषों की कल्पनाओं के ज़्यादा निकट है इसलिए यह अंग चुना गया है, वरना मुझे योनि लिखने में कोई गुरेज़ नहीं है।

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