दरअसल
इन बीते सालों में ऐसा हुआ ही नहीं कि हम सब साथ गए हों और सब एक साथ वापस लौटआए हों। कितने सालों बाद तीन साल पहले हमारी शादी में वह आखिरी बार था, जब हम साथ आए थे। तब भी भाई यहीं रह गया। उसका पेपर था। वह बाद में आया। अभी अगले साल फरवरी में गाँव में चाचा की लड़की, हमारी बहन की शादी है। एक बार फ़िर ऐसा होगा, हम सब एक साथ फ़िर नहीं जा पाएंगे। इसी दुख के लिए अँधेरे में छिप जाने की इच्छा उस तरफ़ ले गयी होगी। अँधेरे पर किसी भूगोलविद् की तरह बात करना बेकार है। मैं उसका अध्येता नहीं हूँ। फ़िर भी दो बार इसका ज़िक्र इस तरह से आ रहा है, जैसे कोई बहुत गंभीर बात रही होगी, जिसका कहा जाना टलता रहा होगा। ऐसा कुछ नहीं हैं।
उन दोनों हवालों में बस इसी तरह का नैराश्य और उसकी परछाईं थी, जिसे अंधेरा कहकर उसमें छिपा देता। छिप जाने में जो न दिखाई देने वाली अवस्था है, उसी को चाह रहा था। पर ऐसा हो नहीं पाया। जो हुआ, उसमें छत पर चढ़ कर एक बार फ़िर गाँव की और छतों को देखने, उनमें कहीं कहीं खड़े हुए लोगों को पहचानने की क्रिया और जो बदल गया है, उसे अपने मन में रख लेने की कोरी सी कवायद भर रही होगी।
इन्हीं सबमें अचानक पता नहीं कहाँ से कोटहिन माता पर चिट्टन की पीठ पर न जाने किस बात पर मारे गए मुक्के की स्मृति झिलमिला जाती है। कितने साल हुए वह शादी के बाद पता नहीं कहाँ चली गयी होगी। पर जब भी ऐसे छत से उसके घर की छत की तरफ़ देखता हूँ, वह कभी-कभी उसी बचपन में वहाँ खड़ी होती है या हमारे चाचा की दुकान पर कोई समान लेने आ जाती है। यह मुक्का मेरी पीठ पर किसी रखे हुए भार की तरह न होते हुए भी वहाँ अब कंचे खेलते हुए बच्चों को देख कर वापस लौट जाना है। नहीं होगा। तब भी ऐसा ही लगा। लगता रहा। बहुत देर तक।
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