बेस्टसेलर

वह किताबें जिन्हें बेस्ट सेलर कहे जाने का चलन बढ़ता जा रहा है, यह नई से लेकर पुरानी किताबों पर दिख रहा है। दुष्यंत कुमार और गुनाहों का देवता से शुरू हुई यह बात बहुत आगे बढ़ गई है। इसे सिर्फ़ भाषा का मसला नहीं कहा जा सकता। यह इस दौर में एक मोहर की तरह हो गया है। जिस पर यह लग गई, बस दुनिया उसी की। हम इस शब्द के साथ सिर्फ़ लोकप्रियता को ही नहीं बल्कि अपनी जीवनशैली में आ गए बदलावों को देख सकते हैं। बहरहाल। अभी बात एक किताब पर करने जा रहा हूं। कल रात खाना खाने के बाद नई हिंदी वाला एक नॉवेल पढ़कर ख़त्म किया है। मैं इसके बारे में सिर्फ़ एक बात को कल से घोटे जा रहा हूं। यह एक ऐसी रचना है, जिसे तयशुदा फॉर्मूले पर क्राफ़्ट किया है। क्राफ़्ट तो लगभग सबका होता होगा। कोई न भी बोले तब भी। तो इसमें ऐसा क्या है, जिसे रेखांकित किया जाना चाहिए? एक हॉस्टल, तीन दोस्त, रैगिंग, सीनियर-जूनियर का द्वंद्व, सिगरेट, अड्डेबाजी, दोस्त का प्यार और कहानी ख़त्म होते-होते एक-दो बड़े ट्विस्ट।

नरेटर जो खुद इस कृति का लेखक है, उसके पास घटनाएं इतनी ज़्यादा हैं कि वह चरित्रों को भी कहकर बताता है। वह कैसे हैं। उनका होना, उसके बाहर नहीं है। यह स्मृति आख्यान की तरह पीछे से शुरू होकर अदृश्य भविष्य को तरफ़ जाता है। पंच लाइनें हैं, विट है। बेफिक्री है। वह नौजवान हैं, इसलिए कोई दर्शन नहीं है। कोई स्टैंड नहीं है। वह हॉस्टल जिसके अनगिन किस्से किसी की ज़िंदगी में नहीं हैं, वही इसका सबसे बड़ा यूएसपी है। बस इस मसाले में बेस्टसेलर हो जाने के सारे गुण पहले से हैं। यह वाला बनारस के नाम के साथ है। अगला दिल्ली पर है। कभी-कभी सोचता हूं, क्यों पिछले साल इसी किताब को छियालिस पन्ने पढ़कर रख दिया था। अब जबकि यहां बैठा ऊंघ रहा था, सोचा इस दरमियान पढ़ने को कोई किताब नहीं है। चलो इसे निपटा दिया जाए। कहीं कुछ कोट किया जाएगा, तब थोड़ी तो ऑथेंटीसिटी अपने अंदर बची रहेगी। बस चलते-चलते एक दो बातें और कह लूँ।

हमारे यहाँ एक शब्द बड़ा फ़ेमस है, मने प्रसिद्ध है। मिडियॉकर। लेखन का हर दौर ऐसे लोगों और उनकी रचनाओं से भरा हुआ है। मैं यह नहीं कह रहा, जिससे बात शुरू की थी, उसे इस परिधि में समेट रहा हूँ। नहीं। यह सैद्धांतिकी की अपनी बनी बनाई श्रेणियाँ हैं। उनके पास भले इन बातों का कोई जवाब न हो कि कौन कितने वक़्त तक टिका रहेगा, पर वह यह ज़रूर जानते हैं कि जितना भी जिस समय लिखा जा रहा होता है, उसमें अधिकांश इस श्रेणी में आते हैं। मतलब किसी के लिए वह मिडियॉकर हो भी सकता है या नहीं भी। यह उसके द्वारा पढ़े गए साहित्य पर निर्भर करेगा। कोई ऐसा भी नहीं होना चाहिए, जिसने राहुल सांकृत्यायन को पढ़ा हो और इतनी लंबी छलांग लगाकर डीपी को। कोई डीपी या किसी और को धर्मवीर भारती कह सकता है। इसपर वह फूलकर कुप्पा हो सकते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। बस एक बात गलत है, इस पढ़ने वाले का फ़लक ज़रा छोटा रह गया।

भाषा बचेगी। नहीं बचेगी। उसका रूप भविष्य में क्या होगा यह एक-दो छिटपुट रचनाओं के आने से तय बिलकुल भी नहीं होगा। जो जैसा बरत रहा है, वह भी तो एक न एक दिन इस बात के लिए अपने औज़ार पैने करेगा। वह भी तो बताएगा, उसके लिए भाषा किस तरह काम करती है। इसके सामने यह तो एकदम फ़र्जी सवाल है कि भाषा किसी लिपि में लिखी जाये। वह जैसी बोली जा रही है, उसे वैसे लिखे जाने पर तो हम देख ही रहे हैं, वह कैसे बदल रही है। बस हमें देखना होगा यह सहज है या इसके उत्प्रेरक कहीं और स्थित हैं। बस अभी इतना ही मुझे कहना है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

खिड़की का छज्जा

उदास शाम का लड़का

मोहन राकेश की डायरी

काश! छिपकली

हिंदी छापेखाने की दुनिया

छूटना

एक चीथड़ा सुख