गांव
इन सब बातों के अलावा जब यह सर्दियां नहीं रहेंगी, गर्मी में लू के थपेड़ों से सब बेहाल हो रहे होंगे और बरसात की बूंदों का इंतजार करते यह लोग जो गांव में रह रहे हैं, वह खुद को लेकर किसी रूमान में नहीं हैं कि वह यहां रहा करते हैं। जो कभी यहां नहीं रहे, जिनके बाप-दादा यहां पले बढ़े, यहीं की मिट्टी में मिल गए और वह खुद कभी इन गावों में नहीं रह पाए, वही इन जगहों के लिए बहुत भावुक हैं। अगर गांव उनके पूर्वजों को जिंदा रख पाता, तब कौन यहां घरबार छोड़कर कहीं जाने को होते? यह जो बात है, जिसमें हर बात गांव के हवालों से शुरू हो रही है, वह कौन हैं? उनकी आर्थिक, सामाजिक स्थितियों को भी भली भांति देख विचार लेना चाहिए। तब तस्वीर में और अधिक स्पष्टता आ पाएगी।
उनके पास गांव की स्मृतियों के अभाव में भी बहुत से बिम्ब, रूपक, और पता नहीं कौन-कौन सी युक्तियां हैं, जहां गांव की स्त्रियों को कभी हाथ-पैरों में कोई समस्या नहीं होती, वह हमेशा तंदुरुस्त रहती हैं। इसके लिए वह चक्की चलती हैं। घास छीलती हैं। उपले कंडे पाथती हैं। कुएं से पानी भरती हैं। हाथ से कपड़े धोती हैं। घर की दीवारों और फर्श लीपती हैं। मतलब दिन भर बस कभी खत्म न वाला काम, काम और काम ही करती रहती हैं। थकती होंगी, तब भी काम ही के बारे में सोचा करती होंगी। पुरुष का ज़ोर चले तो वह स्त्रियों के हिस्से पड़ने वाले शहर को गांव की उप-शाखा बनाकर छोड़ दें। पर उनका बस नहीं चलता। वह सिर्फ़ बलात्कार से ही अपनी इस इच्छा को आधा-अधूरा पूरा कर पा रहा है।
अगर यहां, गांव में, दूध-घी सबको मिल पाता, सब रोज़ ताज़ी फल सब्जियों को खाते, तब शायद सबसे स्वस्थ जनसंख्या यहीं इन्हीं गांव में रह रही होती। जच्चा बच्चा दोनों सेहतमंद रहते। गर्भवती महिलाओं में खून की कमी नहीं होती। बच्चे कुपोषण से नहीं मरते। किसी 'प्रथम' जैसे समूह की 'असर' रिपोर्ट गांव को नहीं किसी शहर के स्कूल को अपने केंद्र में रखती। संपत्ति के लिए महिलाओं को डायन कहकर कोई नहीं मारता। किसी प्रेमचंद को ठाकुर के कुएं पर कहानी नहीं मिलती। तब मुज्जफर अली अपनी पहली फिल्म, 'गमन' नाम से नहीं बनाते। यह बिलकुल सच है, जो कभी लौट नहीं पाएंगे, वहीं लौट जाने के सपनों में डूबे हुए हैं। जो यहां हैं, उनके लिए यह जगह नरक से कम नहीं है। इसी में जीवन खत्म हो जाएगा।
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