कमीज़

अक्सर वही शर्टें यादों में लौटकर वापस आती रहीं, जो किसी तस्वीर में कहीं दर्ज़ रह गईं। यह कमीजें पासपोर्ट साइज़ की उन तसवीरों में सबसे ज़्यादा वक़्त के लिए खुद को समा लेती हैं। उन्होंने ख़ुद को वहाँ टाँक लिया हो जैसे। हरी मस्जिद, चूना मंडी की सरदारी जी की दुकान से हमारे घर की अलमारी में रखे उस पीले लिफ़ाफ़े तक। इतनी सारी फोटुएँ इतनी जल्दी खत्म भी नहीं होती। इस बार नहीं हुआ, तब अगली बार फ़िर भरते हुए। एक फ़ॉर्म से दूसरे फ़ॉर्म तक। हम ऐसे ही इन्हें सबसे ज़्यादा जानते हैं। मैं उन सारी तसवीरों को एक साथ यहाँ देखना चाहता हूँ। पर अभी सिर्फ़ एक दिख रही है। यह शर्ट मार्च चौदह में ख़रीदी थी। सोचा था, शादी के बाद कहीं घूमने जाएँगे, तब इसे पहनुंगा। करोल बाग से ली इस शर्ट के साथ दो कमीज़ें और थीं। वह भी इसी इरादे के साथ ली थी। पर जैसे बहुत सारी बातें मेरे मन मुताबिक नहीं हुईं, वैसे ही हम दिल्ली लौटे पर कहीं घूमने नहीं जा पाये। यह तीनों कमीज़ें किसी बक्से में तब से पड़ी रहीं। अटैची भी हो सकती है। याद नहीं आ रहा, कहाँ रख दिया था। अभी पिछले साल गाँव गए। तब पता नहीं कहाँ से यह कमीज़ें बाहर आ गईं। यह बात अक्सर मेरे मन में चक्कर लगाती रहती है। इस कमीज़ में ऐसा क्या है, जो इस पर लिखने बैठ गया?

होगी कोई बात, जो समझ नहीं आ रही। शायद मुझे यह ऊपर लिखी पिछली बात, तब से अखर रही है कि जब तुम्हारे साथ कहीं घूमने जाता, तब इसे पहनने के ख़याल से भरते हुए इसे अपने लिए लिया था। फ़िर ऐसा क्यों हुआ के आज जब इस शर्ट की तस्वीर को बहुत सारी यादों में से एक याद की तरह लगा रहा था, तब भी सारी बातें इसी के इर्द-गिर्द घूम रही हैं। वह कमीज मुझे क्यों याद नहीं आई जो बादामी रंग की थी, जिसे हरे रंग का समझ कर पहनता रहा। एक दिन तुमने बताया। यह हरा नहीं बादामी रंग है। यह बिलकुल वैसी ही कमीज थी, जैसी रीना की शादी में लखनऊ जाते हुए खरीदी थी। एक उस शर्ट को बहुत याद किया करता हूँ जो मैसूर से लाये थे। भुकवा लगते वक़्त पाँचों दिन उसे ही पहने रहा। बाद में उसमें सरसो, हल्दी सब इतना महकने लगा कि धोकर भी वह सुगंध गयी नहीं। इसमें एक फ़ोटो खिंचवायी है। मैं घुटने मोड़कर गाँव के घर की छत पर पीछे रखे ईंटों पर पीठ टेक कर बैठा हुआ हूँ। एक में हम दोनों भाई रीना की शादी से लौटते हुए सड़क पर बैठे हैं। फ़ोटो सुरेस चाचा ने खींची थी, तब भी बढ़िया आ गयी थी। एक पीली सफ़ेद कमीज़ में एक आई कार्ड है। वह भी कभी बहुत याद आती है। चटक रंग थी। खिल जाता था उसमें।

इन दिनों एक लाल चेक वाली शर्ट को घसीटने की हद तक रोज़ पहन रहा हूँ। एक तो कोई शर्ट बहुत कम मुझे पसंद आती हैं और अगर कोई आ जाती है, तब उसे इतना पहनता हूँ कि वह एक दौर की तरह उस वक़्त की हर तस्वीर, हर याद की तरह मेरे मन में उग आती है। इसका एक फ़ायदा यह होता है कि यादों को याद करना आसान हो जाता है। आगरा में चेक वाली। कसोल में लाल वाली। बंगलोर में फ़ोटो वाली। ऐसा नहीं है कि शर्ट बुकमार्क बन जाती होंगी। वह सिर्फ़ उन स्मृतियों को अपने अंदर विभाजित करने में भी बहुत मददगार होती हैं। जैसे अभी दिमाग पर बहुत ज़ोर डालकर भी यह याद नहीं कर पा रहा, अप्रैल चौदह में गाँव में रहते हुए कौन से कपड़े पहने थे। लेकिन ऐसा नहीं है कि याद नहीं है। एक कमीज़ थी। जो बाद में दिल्ली आकार प्रेस से जल गयी थी। जलने के बावजूद उसे कई मर्तबा पहना। आख़िर में उसे चूहों ने काट दिया। अक्सर तब कमीज़ों को पहनना छोड़ना पड़ता है, जब उसका कॉलर जवाब दे जाता है। हमारी कमीज़ों के बटन नहीं टूटते। कॉलर वक़्त में पीछे रह जाते हैं।

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