दृश्य
दिल की धड़कनों को वह भी महसूस कर अगली सुबह थोड़ी देर और लेटे रहेंगे। हवा नहीं चल रही। ढबरी में लौ इतनी झिलमिला नहीं रही होगी। लेकिन वह अब ठंडी है। सूरज ढल जाने के बाद आसमान से गिरती सीत में भीगते हुए उसे लौटना कभी अच्छा नहीं लगा। हर रात उसकी एक नाक इसी वजह से बंद हो जाती। इस अँधेरे में एक पीली सी चमक है। उसका छोटा सा घेरा है। उसी के सबसे किनारे वह बैठी हुई है। कल सब गौना करा लाये हैं। चूल्हे पर रखी बटुली में दाल चुर नहीं रही। वह उसमें दोबारा सतपइथा गरम कर रही है। सब अभी सोएँगे नहीं। अपनी-अपनी बातों को लेकर बैठ जाएँगे। शायद चने अभी खेत में नहीं हैं। वरना होता यह कि उसकी बालियाँ अभी सबके हाथों में होती। अम्मा कहतीं, ज़्यादा मत खाओ। ठंड लाग जायी। तब कोई बड़ी बहिन होती, वह उन्हें आग में झोंक देती। थोड़ी देर झुलसने के बाद निकालती और चटनी के साथ खिलाती। पर अभी मूँगफली के दिन हैं। सब वही चबा रहे हैं। इस चबाने में चबाना दरअसल इस रात को है। दुआरे वो झबरा कुत्ता शांत भाव से पड़ा है। उसे किसी चोर की कोई चिंता नहीं है। वह जानता है, चोर भी हाँड़-माँस से बना है। उसे भी ठंड लगती है। वह उनींदा बाबा की तरह सोया रहता। सहसा एक अपरिचित आहट पर भौंकने लगेगा। रात भर ठीक से नहीं सोएगा। बस किसी गली से आती किसी साथी कुत्ते की आवाज़ का पीछा करता जाएगा।
इस एक दृश्य में मैं कहीं नहीं हूँ। यह दृश्य मेरा नहीं है। इसके बावजूद यह एक कोरी कल्पना हो, ऐसा भी नहीं है। यह कुछ-कुछ वैसी ही बात है, जहाँ हम उस तरह वास्तविकता को कहने की आदत में डूब जाते हैं। हम उसे कल्पना की भाषा में कहा करते हैं। यह न जाने कब से मेरे अंदर थिर था। कहीं जा नहीं रहा था। इसे दोबारा महसूस करते हुए आज जब इसे कह रहा हूँ, तब मैं भी कहीं उसमें झरोखे से झाँकती रौशनी के साथ इधर से उल्टे जाते हुए उसमें झिलमिलाते हुए दाखिल हो गया। रौशनी की तरफ से दाख़िल होते हुए यह ऐसा दिख रहा है। हिलता हुआ।
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