सफ़र

गाड़ी वक़्त से पहुंच गई। पांच मिनट की देरी कोई देरी नहीं होती। भारत में इसे वक़्त पर पहुंचना ही कहते हैं। ख़ैर। अकेले ही दोनों झोलों को कंधे पर टांगे प्लेटफॉर्म नंबर एक पर आया। यहां से बाहर निकल गया। कैसरबाग से बहराइच की दो बसें थी। एक वातानुकूलित। दूसरी साधारण। हम दूसरी वाली में चढ़ गए। बस टू बाय टू थी। 

बस अड्डा एकदम बदल गया है। अपने आप खुलने बंद होने वाले दरवाजों के बीच में लगभग सौ लोगों के बैठने की व्यवस्था है। आदमियों को अब पेशाब करने के लिए दीवारें नहीं खोजनी पड़ेंगी, न उन्हें गीली करने का ख्याल अपने मन में लाना होगा। यहीं, इसी बड़े से हॉल के एक किनारे पर बने शौचालय में मुफ्त सुविधा दे दी गई है। इससे कितना श्रम और रचनात्मक ऊर्जा का संरक्षण हुआ या अलग गणना का विषय है। 

ख़ैर। बस आठ बजकर तीस मिनट पर चल पड़ी। मेरे बगल की सीट पर एक लड़का बैठा था, वह मेरा फोन देखकर उसके बारे में पूछने लगा। वह भी नोकिया लेता। पर तब तक आया नहीं था। सैमसंग का फोन लिया था, अब चलाना पड़ रहा था। उसके पिता जी की तबीयत ख़राब थी। वह इमरजेंसी में गांव लौट रहा था। यह बात बस चलने से पहले हम कर चुके थे। तभी खिड़की के बाहर 'सफ़ेद बारादरी' दिखाई दी। लगा, इसका बारह दरी, मतलब बारह दरों(तहों या कमरों) से कोई लेना देना है भी या नहीं यह एक बार आकर खुद देखना पड़ेगा। यही सोच बाहर देखता रहा। 

अब गोंडा, बहराइच जाने वाली बसें फैज़ाबाद वाले हाईवे पर बाराबंकी तक जा कर अन्दर मुड़ जाती हैं। इससे वक़्त बचता है या कोई और बात है, पता नहीं। यह भी इसी तरह मुड़ गयी। हमारी बस घाघरा नदी को पार करके साढ़े दस बजे एक भोजनालय पर खड़ी थी। दस रुपए में अंकुरित चने की प्लेट खरीदी। वहीं लोग जिनमें से कई वह युवा थे, बाहर से वापस लौट रहे थे, सिगरेट ले लेकर खड़े थे। वह बताना चाहते थे, वह बाहर से आए हैं। उस धुएं से बचने के लिए मैं बस में दोबारा चढ़ गया। हम पौने बारह बजे बहराइच पहुंच गए। यहां का बस अड्डा अभी भी निर्माणाधीन है। अभी पूरा बना नहीं है। धूल उड़ रही है। मैं एक टेंपो पकड़कर आसाम रोड तक चल पड़ा।

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