हत्या

मुझे एक हत्या पर क्या लिखना चाहिए ? यह हत्या जिनकी एवज़ में की जाती है, जिन्हें ढाल बनाकर किसी को मारा जाता है, वह इस पर क्या कहना चाहेंगे ? यह दो तरह की दुनिया का टकराना है या जिस खोल से हत्यारे निकल कर आए हैं, उसे दुनिया कहा जा सकता है ? वह जो डर गए हैं, उनका डर स्वाभाविक है । उन्हें पता है, कोई ऐसा प्रति विचार भी है, जो उनकी आस्था के समानान्तर चल रहा है और एक शाम ऐसी भी आ सकती है, जब उनकी यह दुनिया भरभरा का गिर भी सकती है । कहीं कोई बारिश नहीं होगी । कोई बिजली भी नहीं गिरेगी । बस दीमक लग चुकी हैं । वह नहीं चाहते कि कोई उस दुनिया पर अपने तफ़सरे कहे । उन पर की गयी व्यक्तिगत टिप्पणियाँ एक ख़तरा हैं । वह किसी संभावित भविष्य में ऐसा नहीं होने देना चाहते ।

मुझे लगता है, अगर वह किसी युक्ति से हमारे अतीत में पीछे जा सकते, तब यह उन सबकी हत्या की इच्छा से भर जाते, जो इनके मुताबिक ठीक नहीं होता । मुझे यह भी पता है, उनके पास पीछे जाने के कई तरीके हैं । तभी हमें इसी क्षण से आगामी अतीत में होने वाली संभावित हत्याओं का इतिहास लिखना शुरू कर देना चाहिए । वह किसी की भी हत्या कर सकते हैं । वह कर भी रहे हैं । लड़की जो अपनी मर्ज़ी से किसी लड़के से शादी करना चाहती है । वह लेखक जो किसी लोक में प्रचलित कथा को अपने उपन्यास का आधार बनाता है । कोई दलित जो अपने पूर्वजों की तरह उनकी बेगारी नहीं कर रहा । वह उस चिंतन प्रक्रिया को मारने के लिए तरह तरह से नियंत्रण लगाना चाहते हैं । उसे अपने नियंत्रण में लेना चाहते हैं । इन सब घटनाओं को मिलाकर जो परिदृश्य बनता है, वह भयावय नहीं इस कठोर वास्तविकता को दर्शाता है । जहाँ आप हमेशा एक तरह के दबाव में हैं । आप अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं को पूरा करने के लिए छटपटा रहे हैं । इसे हम किसी तरह से देख सकते हैं । यह संसाधन पर अपना कब्ज़ा बनाए रहने की अकथित पृष्ठभूमि है । यह सिर्फ भौतिकवाद से समझ नहीं आने वाला । वह यहाँ चुक जाता है ।

मेरा हँसना, मेरा किसी भी वक़्त बाहर निकलने की इच्छा से भर जाना, मेरा पहनावा, मेरा खाना, मेरी जाति, मेरी शादी, मेरे बच्चों के नाम, मेरा लिखना सब उनके मुताबिक नहीं हुआ, तब वह जहाँ से छिपकर मुझपर नज़र बनाए हुए हैं, वहाँ से निकलकर मेरे सामने आएंगे । वह बताएँगे । मैं गलत हूँ । मुझे लगे न लगे, पर किसी दूसरे की नज़र में सही नहीं हूँ । यह किसी भी तरह से व्यक्तिवादी इच्छाओं का संदर्भ या प्रस्थान बिन्दु नहीं है । यह हम सब पर, जो खुद को इस दायरे से बाहर का मानकर निश्चिंत बैठे हुए हैं, उन्हें भी अपने अंदर समाये हुए है । यह उनकी भूल है, जो ऐसा समझते हैं । हम सिर्फ इसे सामाजिक नियंत्रण या उसके रूढ़िवादी होने से नहीं समझ सकते । हमें अपने विश्लेषण के औजारों को दोबारा से जाँचना होगा । देखना होगा, हम जो अपनी दुनिया बना रहे हैं, उसके भीतर भी दूसरों को कष्ट पहुँचाने की क्षमता है । हमारी अपने तरह से दुनिया बनाने की यह इच्छा उनके दुखों का कारण है । सवाल है, वह इसे अपने अस्तित्व का सवाल क्यों मानने लगा है ? क्यों उसे अपने दुनिया को बचाए रखने के लिए हमारी दुनिया को खत्म करना ज़रूरी लगता है ? क्या यह सिर्फ़ विचारों या विचारधाराओं की लड़ाई है । जैसे कि मैंने पहले कहा । बिलकुल नहीं ।

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