दो अलग-अलग बातें

1. कभी-कभी सोचता हूँ, मेट्रो में यह दृश्य न जाने मेरी अनुपस्थिति में कितनी बार घटित होता होगा। यह कोई आश्चर्यजनक दृश्य नहीं है। बस इसमें होता यह है कि एक बैठे हुए लड़के के पास पिछले स्टेशन पर चढ़े बुजुर्ग व्यक्ति आकर खड़े हो जाते हैं। अब लड़का क्या करे? वह पास में बैठी या पास में खड़ी लड़की की तरफ़ देखता है। उसे लगता है, वह पहले से ही उसे देख रही है। बेचारा बैठा हुआ लड़का पहले ज़मीन में नज़रें गढ़ाता है, फिर चुपचाप शालीनता को अपने चेहरे पर ओढ़ते हुए, मुस्कुराकर अपनी सीट उन उम्र दराज़ व्यक्ति के लिए 'अंकल आप बैठिए' कहकर छोड़ देता है। मुझे तो यहाँ तक लगता है, हमें किसी भी अधेड़, बूढ़े व्यक्ति के लिए अपनी सीट नहीं छोड़नी चाहिए।

कभी हम यह सोचते हैं, उन्होंने यह कैसा समाज बनाया है? क्या कभी इसकी इस जटिल संरचना पर कोई प्रहार भी किया है? अगर किया होता, तब यह दुनिया शायद रहने के लिए कुछ बेहतर जगह होती। यह वही अकड़ में डूबे हुए लोग हैं, जो आज के लड़के-लड़कियों द्वारा अर्जित स्वतंत्रताओं पर औपचारिक अनौपचारिक रूप से अनर्गल बातें किया करते हैं। ऐसे पुरुषों की वजह से ही हम पता नहीं कितनी अंतर्विरोधी ज़िंदगियों को जीने के लिए अभिशप्त हैं। लेकिन यह इतने बेशर्म हैं कि उसी लड़के या लड़की के अपनी जगह से उठ जाने के बाद खाली हुई सीट पर बैठ जाने को अपना अधिकार मानते हैं।  (22 अगस्त, 2017)

2. यह शनिवार लखनऊ पुस्तक मेले की ही बात है। कहना ज़रूरी है। यह असल में एक सवाल है, जिसका मेरे पास कोई जवाब नहीं है। वह लड़कियां पिछले दो या तीन दिन लगातार राजकमल प्रकाशन के स्टॉल पर आकर झोला भरभर कर किताबें ले जा चुकी हैं। ऐसा उन्होने कहा जो वहाँ स्टॉल का संचालन कर रहे थे। उन्होने पूछा, 'कल नहीं आएंगे आप लोग?' वह दो थीं। दोनों ने लगभग हँसते हुए कहा, नहीं। पहले ही बहुत किताबें खरीद चुकी थीं। मेरी इच्छा बस इतना जानने भर की है कि जैसी किताबें हम पढ़ा करते हैं, क्या वह हमें वैसा बना भी रही होती हैं? इस सवाल को थोड़ा स्पष्ट करूँ तो मुझे क्या दिखता है? वह दोनों लड़कियां सलवार सूट में हैं। कानों में एथनिक से लगने वाले झुमके पहने हुई हैं। आत्मविश्वास उनके चेहरे पर ऐसे है, जैसे दुनिया के हर सवाल का जवाब उन दोनों के पास है। दरअसल मैं यह जानना चाहता था, साहित्य ने उनके साथ ऐसा क्या किया(?), जो वह मेरे साथ नहीं कर पाया था। मैं भी एक जमाने से किताबों के पीछे भाग रहा हूँ। पर जब हम संस्थागत रूप से कहीं यही सब पढ़ रहे थे, तब बुझा-बुझा सा चेहरा लिए घूमा करते थे। वह अंदर भले हो पर उसे इस तरह प्रकट क्यों नहीं कर पाने में अक्षम थे? अगर ऐसी कोई चीज़ मुझमें होती, तो सबसे पहले उनसे बात करता। देखता, जो सोच रहा हूँ, वह किस हद तक सही है?  (23 अगस्त, 2017)

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