ख़त सा पन्ना

बहुत दिन हुए आपसे बात नहीं हुई. कभी ऐसे होना, खाली होने जैसा लगता है. इधर सच में यह बहुत महसूस होता रहा है, हम कुछ नहीं कर पाए. लिखने को लेकर अब ख़ुद को ज्यादा आश्वस्त नहीं कर पाता. लिखने को कम करके नहीं आँक रहा. एक प्रयोजनवादी विमर्श हावी हो जाता है. ब्लॉग रोल में देखता हूँ, तब लगता है, कोई तो मेरे साथ नहीं लिख रहा. जो तीन साल पहले स्थिति थी, उसमें बहुत परिवर्तन आया है. शायद हम सब हमउम्र रहे होंगे और ज़िन्दगी में एक साथ ज़िन्दगी के दबावों की तरफ बढ़ गए होंगे और इस कारण ब्लॉग पर नहीं लिख पा रहे होंगे. यह उसी पुरानी बहस में दुबारा घिर जाना है. प्रिंट में आने की तमन्ना के बाद सब सुस्त हो गए. प्रिंट मतलब उनके नाम की एक जिल्द आ गयी और उनकी रचनात्मक ऊर्जा का विलोपन शुरू हो गया. यह शायद सतह पर दिख रहा है, शायद इसलिए इस तरफ इशारा कर रहा हूँ. फिर आप वाली बात याद आती है. ब्लॉग को एक माध्यम की तरह देखना चाहिए और कौन उसे कब तक साथ रखकर लिखता रहे, यह उनका व्यक्तिगत चयन है. मेरा भी अब लिखने का मन नहीं है. बहुत टुकड़े-टुकड़े में लिख लिया.

लेकिन ऐसा नहीं है, अब कुछ बड़ा लिखते हैं टाइप ख़याल दिल में उठने लगे हैं. बिलकुल नहीं. बस ऐसा है कुछ कि जिसे बयान नहीं कर पा रहा हूँ. शायद यह इन जगहों से भाग जाने की एक और वजह बनकर अन्दर उभरने लगी है. मन करता है, अब जो दो एक किताबों के ख़ाके दिमाग में हैं, उन पर कायदे से काम करना शुरू कर देता हूँ. पर वही बात है, ख़ुद को कभी एक जगह टिककर, खूंटा गाढ़ कर लिखने का अभ्यास नहीं है. इन चक्करों में एक अदद डायरी थी, उसका भी बंटाधार हो गया है. पर उसके बहुत व्यक्तिगत कारण हैं. उन्हें मैंने जानकार ऐसे ही होने दिया है. कभी मन करता है, कहीं घूमने चला जाऊं. यह जो अकेलापन है उसे एकांत में लेकर बैठा रहूँ. पर हो नहीं पाता है. जैसे ही मुझे लगा मेरा यह वाला ब्लॉग भी करनी चापरकरन की तर्ज पर वापस लौट रहा है, अघोषित रूप से उसे न लिखने की ठान चुका हूँ. यह ठान लेना ठान लेने जितना मजबूत नहीं है.

मेरे जैसा भावातिरेक में बह जाने वाला व्यक्ति इस तरह के अड़ियल निर्णयों को लेना से बचता है पर कुछ देर का मुगालता ही सही, ऐसा ख़ुद के साथ कर लिया करता हूँ. सोचता हूँ, जब सब अपने अपने मोर्चों पर वापस लौट चुके हैं और उनके ठिकाने खाली हैं, तब जो मुझे कभी पढ़ने की इच्छा से भर जायेंगे, वह उन पुरानी कतरनों को पढ़कर काम चला सकते हैं. नए-नए के चक्कर में खूब वक़्त लगता है. ऐसा नहीं है, सच में वहाँ न लिखने के ख़याल से भर गया हूँ पर तात्कालिकता पर यही हावी है. आप मेरी बातों में दोहराव ज़रूर देख पा रहे होंगे. क्या करूँ? सिलसिलेवार सिर्फ एक ही चीज़ को तलाश रहा हूँ.

ख़ुद को. इन पंक्तियों के बाहर ख़ुद को कितना असहाय पाता हूँ, कह नहीं सकता. आप बताइयेगा, अपनी ऊर्जा को किस तरह दोबारा अर्जित किया जा सकता है? यह व्यक्तिगत मसला तो ज़रूर है पर दुनिया में जिस तरह का विमर्श है, उसमें तो हम कहीं खड़े नहीं दिखते. यह जगह हमें भी क्या उन्हीं प्रचलित तरीकों से बनानी होगी? इसी बिंदु पर आकर लगता नहीं है, मैंने कभी जगह बनाने के लिए कभी कुछ किया हो. और अब ख़ुद से कहीं खड़े न होने को लेकर नाराजगी दिखाना, ख़ुद को छलने जैसा है. यह सिर्फ उम्र में साल दर साल जुड़ने का दबाव होता तो मान लेता. पर क्या करूँ? जब चीजें सामने दिखती हैं, और उनमें अपना अक्स देखता हूँ, तब कुछ ख़ास हो नहीं पाता है. आपने इतना वक़्त निकाल कर पढ़ा, इसके लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं. जिन शब्दों में यह लिखा है, वह तो आप देख ही रहे होंगे, कैसे हैं. बेचारेपन से भरे हुए. खाली से. गिलास की तरह.

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बाबा

खिड़की का छज्जा

बेतरतीब

उदास शाम का लड़का

हिंदी छापेखाने की दुनिया

आबू रोड, 2007

इकहरापन