भोपाल

मेरे जन्म से एक महीने पहले की बात है. भोपाल हो चुका था. आज भोपाल होना कोई नहीं चाहता. ऐसा नहीं है, आज तक सिर्फ भोपाल ही भोपाल हो पाया है. दुःख की इन पंक्तियों से आँसू रिसने चाहिए. लेकिन यह संभव नहीं लगता. कोई कहीं देखने से भी नहीं दिख रहा. कभी कोई ऐसा नहीं मिला, जिसने इसकी कोई कहानी सुनाई हो. कोई ऐसी किताब नहीं मिली, जिसने इससे मिलवाया हो.

शायद राजेश जोशी की कोई कविता थी, जिसमें यह एक स्मृति की तरह मेरे अन्दर उतरने लगता. वह उदास, धूल भरा शहर कभी देखा नहीं था. बस इस कविता में पढ़ा था. कौन सी कविता रही होगी, कह नहीं सकता. शायद वह 'सन् पिचासी का बसंत' नाम से कोई कविता थी. यह मेरा साल है और उसके बसंत पर पन्ने पलटते हुए कविता देख सहसा रुक गया. रुक गया कि किसी ने उस पर कविता लिखी है. मुझे पढ़कर लगा, मुझे यह कविता नहीं पढ़नी थी. क्यों उस सुन्दर सी कल्पना के नाम में खोता हुआ उन पंक्तियों को पढ़ गया. यह अब तक का सबसे बड़ा धोखा था. ऐसा धोखा, जिसे कोई अपने साथ होने नहीं देना चाहता.

मैं भी अपने अन्दर कई सारी विधाओं में लिखने की इच्छा लिए चल रहा हूँ पर कोई रचना प्रक्रिया घटित होती नहीं दिख रही. मेरी पंक्तियों में वह कौन सी लय है, जो चाह कर भी नहीं उग पायी, इसका कोई कारण तलाशते हुए कभी कमरे में नहीं बैठा. ऐसा नहीं है, भोपाल मेरा देखा हुआ शहर नहीं है. सन् दो हज़ार ग्यारह में मुकेश भोपाल ही था. वह था, इसलिए मैं और भाई दोनों अक्टूबर में हफ्ते भर के लिए वहाँ चले गए. हमारी बातचीत में कहीं चौरासी का भोपाल नहीं आया. यही भोपाल क्या, कोई भोपाल नहीं आया. हम सिर्फ़ उस शहर में गुज़र रहे थे. उसके बारे में बात नहीं कर रहे थे.

तब भी जबकि हम कोई बात नहीं कर रहे थे, वह भोपाल अट्ठाईस साल बाद बेहद चुप सा था. कहीं कोई कुछ नहीं कह रहा था. बड़े ताल के पास बना मानव संग्राहालय, मानव इतिहास की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी पर मौन था. सुभाष फाटक वाला वह इलाका पता नहीं कब बसा होगा. बस सुनने में यही आया, उस महराणा प्रताप नगर में अख़बार वालों का एक नया मॉल बना है. न्यू मार्किट अपने नाम में ही नयी थी. अल्पना सिनेमाहॉल किस जगह पड़ता है, कभी नहीं जान पाया? न्यू अरेरा कॉलोनी, श्यामला हिल्स और पता नहीं कौन-कौन से नाम तब जेहन में उतर रहे थे. मुख्यमंत्री निवास वहीं तालाब के पास है. चार्ल्स कोरिया का भारत भवन ललित कला और संस्कृति का अध्ययन केंद्र बनकर रह गया. वह कुछ और भी हो सकता था. विनोद कुमार शुक्ल वहाँ कई और कवितायेँ लिख सकते थे. शायद उन्होंने लिखी भी हों. शायद अभी तक किसी को दिखाई न हों.

उन लोगों के लिए, जो भोपाल या उसके आप-पास रहते हैं, उनके लिए अभी भी 'कॉलोनाइज़र' रिहाइश बनाने के लिए अस्तित्व में हैं. हमारे औपनिवेशिक इतिहास की तरफ जाता एक धागा इस तरफ़ भी छूट गया लगता है. बड़े-बड़े होर्डिंग लगाकर वह अपने होने को जता रहे हैं. किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा. बिल्डर को इस उपनाम से संबोधित करते हुए वह किन एहसासों से भर जाते होंगे, ऐसा कोई विवरण मेरे पास नहीं है.बस किसी दूकान पर पहली और आखिरी बार खाए श्रीखंड के धूमिल होते स्वाद की स्मृति है. उस बड़े ताल में तपती धूप में पैरों से नाव चलाने का अनुभव है. उसके किनारे बनी एक बड़ी सी मस्ज़िद की छवि है. मेरे पास वह भोपाल भी नहीं है, जो अभी भी उस त्रासदी को अपने रोज़ाना में झेल रहा है. मैं आज भोपाल से लौट आने के पांच साल, सात महीने बाद, उसे याद करने क्यों बैठ गया, मुझे नहीं पता. बस मेरी मेज़ पर सुधा चौहान की नर्मदा पर एक लम्बी कविता पड़ी हुई है. उसी के रेशों में मेरी स्मृतियाँ वापस वहाँ तक लौट गयीं होंगी.

कभी लगता है, भोपाल मेरे साथ, मेरे अन्दर बड़ा हो रहा है. आज उसे लिख कर बस अपने हिस्से का थोड़ा वजन हल्का कर लेने का मन हुआ. वह उदासी थोड़ी-थोड़ी हम सबमें उतर जाए. यही सोचता हुआ, यह लिख रहा हूँ. वरना एक शहर को जाने बिना वह हमारे अन्दर वह कैसे दाखिल होगा, इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता. आप भी अपनी कल्पनाओं में किसी शहर को देखिये, क्या उसकी छाया में भोपाल का उदास मौसम दिख रहा है? नहीं दिख रहा होगा.

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