वियतनाम का पयजामा
बाद में पता चला, वहाँ लोग इस्राइल से आते हैं. मैं वियतनाम के पयजामे के साथ वहाँ गया. यह पयजामा, क्नॉट प्लेस से ख़रीदा था. जितनी लागत में यह उस देश में बना होगा, वहाँ किसी ने इसे खरीद कर पहना होगा और उसके गंदे होने पर साबुन, डिटर्जेंट से धोया होगा, उसके इन दिनों, रातों, शामों की कितने साल की यात्रा के बाद अपने देश से कई हज़ार किलोमीटर दूर, यहाँ सौ रुपये में बिक रहा था.
इनमें से किसी बिंदु की कल्पना कर पाने में ख़ुद को असमर्थ पाता हूँ. शायद यह हैसियत हममें से किसी में भी नहीं होगी. हम उन्हीं कल्पनाओं को करने के अभ्यस्त होते हैं, जिन्हें करने का अभ्यास हम अपने अतीत से करते आ रहे हैं. वह पयजामा इन छवियों में कैद नहीं हो पा रहा था.
हम कसोल से तोष होते हुए खीरगंगा तक गए. चार दिन तक लगातार, सुबह से शाम तक इसे पहने रखा. यह किसी सबार्ल्टन बहस का हिस्सा नहीं है. बस हमारे कई हिस्सों की स्मृतियों का एक हिस्सा है. वियतनाम का मौसम कैसा होगा, नहीं जानता. पर इस सूती पयजामे से उसकी तासीर कुछ-कुछ समझ आती रही. वह कपास से बना हुआ है. उसमें उस मिटटी की खुशबु नहीं पर कुछ तो था, जो कह रहा था. क्यों इसे वहाँ से यहाँ आने की ज़रूरत महसूस हुई, अभी तक पता नहीं चल पाया है. कपड़े ख़ुद चलकर तो आते नहीं हैं. उसका यहाँ तक आना किस कहानी के किस्सों को समेटे हुए है, उसकी कहानी क्या है, यह उस दूकान वाले को भी नहीं पता.