गुलफ़ाम मियाँ मर गए

प्रेम कथाएं क्यों रची जाती हैं. हमारे देश की भौगोलिक सीमा के अन्दर ऐसी कई कहानियों को हम देख सकते हैं. शायद इसका एक ही जवाब है. वह मन में बैठ जाएँ. उनका बैठना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि कोई उन्हें दोहराने की हिम्मत करे, तो उसे याद दिलाया जा सके, उन कहानियों का अंत क्या हुआ था. हमारे यहां प्रेम में हत्याएं शौर्य का प्रतीक बनकर उभरती हैं. उन्हें क्या कहा जाता है, यह दोहराने की ज़रूरत नहीं है. जो करण जौहर आदि द्वारा बनायीं गयी फिल्मों को ‘काउन्टर नरेटिव’ की तरह देखने के आदी रहे हैं, उनका कुछ नहीं किया जा सकता.

आजकल हम सब देख रहे हैं, प्रेम की आचार सहिंता बनायीं जा रही है. शासन बड़ी तत्परता से वयस्कों की इच्छा को सर्वोपरि स्थान पर रख रहा है. कई कायदे पहले से तय हैं. कुछ यह तय कर रहे हैं. बहराइच तक को हम जिला होने के बाद भी क़स्बा ही मानते हैं. वहाँ भी एक ख़बर थी. दो पुरुष थाने में मेज़ की दूसरी तरफ़ खड़े हैं. दारोगा जी पूछताछ कर रहे हैं. पत्रकार आकर फोटो खींच गए.

इन दिनों हम लोगों को पुस्तकालयों से थोड़ा निकलकर अपने कुछ शोध सड़कों और चौराहों पर शुरू कर देने चाहिए. देखना चाहिए, यह जो प्यार, इश्क़, मोहब्बत से इतना घबराया हुआ हमारा समाज है, असल में इसे इतना घबराने की ज़रूरत नहीं है. नव उदारवाद के बाद जिस बदली हुई संस्कृति को ‘अपसंस्कृति’ कहा जा रहा है, उसने हमारे समाज में अंतरजातीय विवाह की कौन सी पछियाव चला दी(?), इस पर कायदे से विश्लेषण होना चाहिए. जब जाति नहीं टूट रही और बड़े, महँगे, पर्वतीय अंग्रेज़ी भाषी विद्यालयों में पढ़े हुए लोग, उससे भी अधिक धाराप्रवाह अंग्रेज़ी में हर इतवार अपनी ही जाति में विवाह योग्य लड़के-लड़कियाँ खोज रहे हैं, इसका भी खुलासा उन अखबारों द्वारा किया जाना चाहिए. तब धर्म के बंधन कैसे टूटने योग्य हो गए, इस पर विचार किया जाना चाहिए.

पता है, प्यार आख़िरी बार कब सफल हुआ था? उदय प्रकाश की लम्बी कहानी ‘पीली छतरी वाली’ लड़की में, जब दोनों भाग जाते हैं. पर ‘सैराट’ में क्या हुआ? पता चला, भागने से भी कुछ नहीं होगा. इस तरह हम पाते हैं, रेणु की कहानी के हिरामन ही गुलफ़ाम थे. कहानी थी, तीसरी कसम.

{'द वायर हिंदी' में किसी कारण नहीं आ पायी पोस्ट.}

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