दो बकाया बातें

१.कुछ आदतें होती हैं. कभी लग जाती हैं, कभी छूट जाती हैं.  नयी आदत कब पुरानी हो जाए, पता नहीं चलता. कब पुरानी बातें, कहीं पीछे रह जाएँ, कोई ख़याल नहीं आता. सब ऐसा रहता है, जैसे कितने साल से लगातार जिए जा रहे हैं. कितना कुछ है, याद करने के लिए. याद करने बैठो तो याद ही करते रहो. कभी खिड़की से बाहर झिलमिलाते पत्तों में डूबते हुए कुछ नहीं दिखता. कभी अँधेरे में चुपचाप कोई छवि चलने लगती है. उनमें लहरों की पत्थरों से टकराती आवाजें नहीं हैं. सब चुप हैं. चुप हैं, आवाजों की तरह.

पढ़ना औए सोना ऐसी ही दो आदतें हैं. क्या नहीं हैं? इधर पढ़ना लगातार कम होता गया और सोना उसी अनुपात में बढ़ता गया. कोई कब तक पढ़ता रहे. उमर होती है पढ़ने की. शायद यही भूल गया हूँ. किताबें जहाँ-तहाँ बिखरी हुई हैं. उनकी तस्वीरें लेकर चमकाता रहता हूँ. इससे एक इमेजेनरी तो दूसरों के मन में जाती होगी. नहीं भी जाती हो, तब भी क्या फर्क पड़ता है? क्या ऐसा तो नहीं, अब पढ़ने का मन इसलिए नहीं होता क्योंकि जो जैसा चाहता हूँ, वैसा कोई लिख ही नहीं पा रहा? यह एक पुरानी पंक्ति की पुनरावृति भर है. इसके आगे दोहराव बादलों की तरह घिर आएगा.

२. कभी कोई ख़याल होगा, जो अपने अन्दर महसूस होता होगा. उसका होना, हमारे होने न होने, हमें पता लगने न लगने से बड़ी बात है. बड़ी बात है, उसका होना. उसका हमारे अंदर होना. वह हमारे अन्दर है, मतलब हमारे दिमाग में जो मिट्टी है, वह अभी उन केंचुओं को अपने अन्दर समाये हुए है. जो हमारी मर्ज़ी से नहीं चलते. वह हमारे रोम छिद्रों से हमारे अन्दर दाखिल हुई धूल, धूप, गर्दे से बनी हुई ऐसी संरचना है, जिसके होने में हमारी साँसें चलती रहती हैं. यह जिन्दा होने का सबूत भी है. जैसे एक सबूत किसी गर्भ में होगा. उसे रचने के लिए वक़्त चाहिए. रचना उस अवधि में होगी, जो उन क्षणों को किसी आकार में ढाल सके, उन्हें सोचने की फुर्सत से भर सके. दुखद है, किसी के पास यह वक़्त नहीं है.

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