छत कमरा

मैं छत पर कमरे में बहुत देर से बैठा हुआ हूँ. कई घंटे मैं ऐसे ही यहाँ बैठ सकता हूँ. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, बाहर आग उगलता सूरज और क्या कर रहा है. चुप रहना मुझे ठीक लग रहा  है. बोलकर क्या होगा. जब इतना शोर है, तब कुछ न कहना ही ठीक है. यह कमरा मुझसे ही बोलता है. पंखा बंद कर देता हूँ तब दीवारे खुलती हैं. उस रौशनी में एक-एक फ्रेम खुलता है. यह अकेलेपन का अवसाद नहीं है. जो ऐसा समझ रहे हैं, उन्हें समझ नहीं है. वह नहीं समझते, क्या समझना चाहिए. वह बस जो दिखता है, उसे पल में जान लेने के दावे करने से फुर्सत नहीं मिलती. मैं तब भी कुछ नहीं कहना चाहता. देखना चाहता हूँ, यहाँ सामने दिवाल पर चिपके दीमक के घर में दीमक कैसे रहती है? वह भी तो कभी बोलती होगी. उसी एक पल को सुनने के लिए यहाँ चुपचाप बैठा रहता हूँ. 

यह कमरा मुझे कभी यादों से भरा हुआ लगता है. मेरे दिमाग की एक एक परत यहाँ खुलती हुई लगती है. जब जिस दृश्य को चाहा उसे वहीं रोक दिया. फ्रीज करके एखने में अपना मज़ा है. रोज़ दोपहर को यहाँ यही होता है. कोई न कोई याद इन बीतते सालों में याद आ जाती है. सिर्फ याद नहीं आती. आकर थम जाती है. बर्फ देखी है. पत्थर देखा है. उन दोनों से भी ठोस. खुरदरी यादें हैं मेरी.

यह दौर, सच में कुछ नहीं कहने का है. यकीन नहीं आता, तब सिरे से ऊपर से नीचे तक दोबारा पढ़ जाओ. कुछ कहा हुआ समझ आ जाए, तब मुझे भी बता देना. इन फिज़ूल पंक्तियों में मेरा वर्तमान दफ़न है. उसे मैं ही यहाँ गाढ़े दे रहा हूँ. किसी को अभी तक बताया नहीं था. यह पहली राजदारी है. किसी से कुछ कहने से पहले ज़रा सोचना बता कर क्या हो जाएगा? यह कमरा चुप था. चुप है. चुप रहेगा. कुछ भी तो नहीं बदल सकता. इस छत से लेकर मुझ तक कुछ भी नहीं बदलेगा. इसमें बिताया गया एक-एक लम्हा पसीने की बूंद बनकर मुझमें समाया हुआ है. जो पसीना नहीं बन पाया, वह मेरी खाल की सातवीं परत है. जो बाकी छह हैं, उनके बारें में कभी नहीं बताऊंगा. कभी नहीं.

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