काश! छिपकली

सोचता हूँ, काश! तुम छिपकली होती, तो कितना अच्छा होता. मैं भी तब छिपकली होने की इच्छाओं से भर जाता. एक दिन हम दिवार से चिपके-चिपके इस दुनिया में रह रहे होते. मैं कहीं कोई फॉर्म नहीं भरता. किसी नतीजे में नाम न आने के बाद चिंता से नहीं भर जाता. किसी की नौकरी करने की सोचता भी नहीं. मेरा कोई दोस्त इस दिवार के पार नहीं होता. हमारी दुनिया इसी के इर्दगिर्द सिमटी हुई रहती. कभी घूमने का मन होता तो उसकी उलटी तरफ जाकर लौट आते. न कभी ताजमहल जैसी जगह को जानते, न कभी किसी दोस्त के केरल में होने की कोई संभावना होती.

ऐसा होने पर हमारा कोई गाँव भी नहीं होता. कौन सी ट्रेन का नाम लखनऊ मेल है, कौन गोमती एक्सप्रेस है, किसे वैशाली एक्सप्रेस कहते हैं, इससे हमारा कोई वास्ता नहीं होता. तुम कभी कहीं जाती ही नहीं. घर पर ही रहती. रसोई देखती. माँ के सूजे हुए घुटनों पर तेल मालिश करती. थोड़ा धूप में भी साथ बैठ जाया करती. थोड़े बहुत जितने कपड़े निकला करते, झट से सूख जाया करते.

छिपकलियों में कभी झगड़ा होता होगा, तो किसी कीड़े को पकड़ लेने के बाद शुरू होता होगा. उनके पास कोई मोबाइल नहीं होता. आपस में बात होती, तो आमने-सामने होती है. पीछे से कितना दूर तक कहते, किसी को कुछ नहीं सुनाई देता. ऐसा इसलिए भी दावे के साथ कह सकता हूँ क्योंकि हमारे इस कमरे में भी कई सारी छिपकलियाँ हैं. लेकिन आज तक उन्हें आपस में कभी इस तरह बात होती भी होंगी, तो हमें कुछ सुनाई ही नहीं देता. उनकी भाषा सीखते-सीखते हम बूढ़े हो जायेंगे पर हमें उनकी बातें समझ नहीं आएँगी. ऐसा ही होना चाहिए. किसी को किसी कि भाषा समझ नहीं आनी चाहिए. इससे एक तो हम ख़ुद में सिमटे हुए होते. किसी मध्यस्थ भाषा की ज़रूरत ही नहीं होती.

इस बार तो नहीं, पर अगली बार तुम मुझे छिपकली की तरह मिलना. वहीं ट्यूब लाइट के पास. किसी अरबरी में नहीं होऊंगा. आहिस्ते से, इत्मीनान से छोटी सी जिंदगी बीत जायेगी. मेरा बस चलता तो इसी ज़िन्दगी में छिपकली हो जाता. किसी की कुछ नहीं सुनता. यह बची हुई ज़िन्दगी इंसान की तरह नहीं, छिपकली की तरह जीता. देखता, छिपकली होकर कोई छिपकली, कैसे सुकून से रहती है?

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