अभिनय

हम हमेशा किसी न किसी कहानी में होते हैं. कोई होता है, जिसके मुताबिक़ हम अपने अभिनय को करने की मंशा से वह सब काम किये जाते हैं, जो हमें करने को कहे जाते हैं. यह पठकथा हम भी लिख सकते हैं और किसी दूसरे की कथा में शामिल होने की गरज से भी कर सकते हैं. अक्सर हम शामिल होना चाहते नहीं हैं, पर हम अकेले में कोई कहानी कह नहीं सकते इसलिए सब कुछ गड्ड-मड्ड होता रहता है. कब, कौन, किसकी कथा में अपनी उपकथाओं की संभावनाओं को टटोल रहा हो, कहा नहीं जा सकता. यह कोई जोर ज़बरदस्ती का हिसाब किताब नहीं है. अगर हम अपनी असमर्थता जताएंगे, तब हम कैसे अभिनय करेंगे, कहा नहीं जा सकता. 

वह भी इसी उधेड़बुन में ऐसी कहानी का शांत सा चरित्र होना चाह रहा था, जहाँ उसकी मर्ज़ी चलती हो. चलना वह उन पेड़ों के नीचे भी चाहता था, जहाँ छाया थी. थोड़ी ओस की बूँदें थीं. वहीं लोग हग भी गए थे. उसकी एक अजीब सी गंध भी रही होगी. जुखाम होना, तभी वह अपने लिए सबसे अच्छी नेमत मानता होगा. किसी ऐसी जगह का आकर्षण कौन छोड़ सकता है, जहाँ सरसों के खेत की मेढ़ हो और उन पीले-पीले फूलों पर भिनभिनाती हुई सैकड़ों मक्खियों की आवाज़ अपनी तरफ खींच लेती होंगी. 

उसने कभी कुछ नहीं कहा. वह सिर्फ़ इंतज़ार करता रहा. किसी कट में तो उसके लिए कुछ होगा. वह अभी खिचड़ी खाकर घड़ी की तरफ देख रहा है. घड़ी दस मिनट आगे है. इन दस मिनटों की बढ़त उसे इतना आगे ले आई है, जिसे वह अभी समझ पा रहा है, उसे इन पंक्तियों को पढ़ने वाले अगले दस मिनटों में भी समझ नहीं पायेंगे. इसमें उनका कोई दोष नहीं है. उनकी भूमिका को वह अपनी कथा में इसी तरह लिख चुका है. अब कुछ नहीं हो सकता. कुछ नहीं.

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