कमरा

जब हम कभी कमरे में होते हैं, समझते हैं, यही हमारी दुनिया है. ऐसा नहीं है के इसके बाहर की दुनिया हमारी नहीं है. हम उस दुनिया से गुज़रते हुए, लौटकर अंदर ही आते हैं. एक दिन बाहर की दुनिया से हम चलकर यहाँ आये थे. इसे घर की तरह देखने लगे थे. यह सिर्फ दिखता ही नहीं, असल में होता भी है. इस संरचना को हम नहीं बनाते. हमारा मन बनता है. हम सिर्फ एक दरी डालते हैं, उसपर एक गद्दा है, रजाई है, दो तकिये हैं. एक खिड़की भी है, छोटी सी और दिवार पर लसेटी की तरह चिपकी सैकड़ों दीमकें हैं. दरवाज़ा ज़रूरी अलमारी की तरह बाहर की तरफ़ खुलता है. यह हमें अपने अन्दर बंद करने के अवसर देता है. हम इसमें समां जाते हैं. यह हमें कुछ नहीं कहता. हम भी कुछ नहीं कहते.

अर्थशास्त्री इसे संसाधन की तरह देखते हैं, बैंक इसलिए क़र्ज़ देने के लिए तैयार हो जाते हैं. मेरा दोस्त, यही कर्जा लेकर परेशान है. पर इस परेशानी में भी एक घर का एहसास उसे सुख से भर देता होगा, ऐसा उसके चेहरे को देखे बिना भी कोई कह सकता है. एक दोस्त है, वह कमाता बहुत है. ठीक से ज़िन्दगी जी रहा है पर उसके पास अपना कमरा नहीं है. इसलिए उसकी शादी नहीं हो रही है. वह कहता कुछ नहीं है, पर परेशान है.

हमारे कमरे में जो दरी है, गद्दा है, रजाई है, इन सबमें से हमने किसी को नहीं बनाया है. फिर भी, यह उस कमरे का हिस्सा हैं. ख़ुद उस कमरे की दीवारें, किन्हीं अनदेखी ईंटों से बनी होंगी. उन्हें भी किसी ने ज़मीन से मिट्टी की तरह निकला होगा, निकालकर साँचे में रखकर, किसी भट्ठे की आग में तपाया होगा. पत्थर होना, अच्छी दीवार का गुण माना गया है. दुनिया में जिस किसी के पास कमरा नहीं है, अगर उसके पास अलग-अलग यह चीजें हैं, क्या वह उन्हें मिलाकर कमरा बना सकता है? सवाल आसान नहीं है. दुनिया की किसी भाषा में इसका कोई जवाब नहीं है.

यह कमरा ही इस दुनिया में नहीं मिल रहा. यह हर तरफ़ से गायब है. वह कबाड़ भरे कमरे को कबाड़ से भरा कमरा ही रखना चाहते हैं. उन्होंने कभी नहीं चाहा, कोई कमरा किसी को मिल जाये. उनका बस चले, तो सब एक-एक कमरा, अपनी एक-एक जेब में लिए फिरते रहें और जब मन करे, जहाँ मन करे, जेब से निकाला और छत समेत उस कमरे में दाख़िल हो जाएँ. हमें इसलिए जेबकतरा बनना होगा. उनसे कमरे चुराने होंगे. वह छिपाएंगे, पर हमें उन्हें तराश लेना है. दीमक वाले से निकल कर अख़बार वाले में आ जायेंगे, पर कमरा चुराकर रहेंगे. 

हमें यह भी पता है, चोरी का इलज़ाम हम पर नहीं आएगा. हम तो दर्ज़ी हैं. इस्माइल दर्ज़ी.

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वक़्त की ओट में कुछ देर रुक कर

खिड़की का छज्जा

मुतमइन वो ऐसे हैं, जैसे हुआ कुछ भी नहीं

जब मैं चुप हूँ

लौटते हुए..

टूटने से पहले

पानी जैसे जानना