दीवार

दीवार सिर्फ़ अमिताभ बच्चन और शशि कपूर अभिनीत फ़िल्म का नाम नहीं है. दीवार सच में दीवार होती है. यह वही दीवार थी, जिसे हम अपने बचपन से देखते आ रहे थे और परसों तक हम सपने में भी नहीं सोचते थे, कोई हमारे सामने ही इसे तोड़ने लगेगा. सच में कोई आया और हम उसे रोक भी न सके. हम सिर्फ़ छत की हद बाँधने के लिए दीवारें नहीं बनाते, अपने सपनों को बाँधने के लिए भी दीवारें बनाते हैं. मम्मी इन तीन फुट की छोटी से दीवार को अपने सपनों में तब से देखती आ रही होंगी, जबसे वह यहाँ आई होंगी.

आज उन्हें टूटते हुए देख उन्हीं की यादों में रह गयी होंगी. मम्मी हमें इन्हीं दीवारों के बल खेलने के लिए बाहर छोड़ दिया करती होंगी. यही दीवारें रही होंगी, जिसे न जाने कितनी बार हमें गिरने से बचाया होगा. इन्हीं ईंटों पर चढ़कर हम अमरुद तोड़ा करते थे. उन छज्जों पर कूद जाया करते थे. अँधेरी रातों में छुपन छुपायी खेलते वक़्त यह दीवार हम सबको ओट में कर लिया करती. यह हमें बताती हम कहाँ हैं? इसी से हमने दिवार के होने को जानना शुरू किया.

यह दीवार एक याद भी है, इसे भरभरा कर कोई नहीं गिरा सकता. इसके गिरने से दिल थोड़ा चिटक आया है. अमरुद के पेड़ के बाद यही थी जो अमरुद के पेड़ की याद दिला दिया करती थी. अब कौन होगा, जिसे देख हम इस देखने के दरमियान अपने अन्दर लौटते चले जायेंगे. उन छवियों में अब सिर्फ़ परछाई होगी. चहेरे नहीं होंगे. आवाज़ें भी नहीं होंगी. बस कुछ हिलते डुलते लोग होंगे, जिन्हें पहचानने की हमारी हिम्मत भी नहीं होगी. बस इतना ही लिख पा रहा हूँ, उन्हें टूटता देख. कल यादगारी के लिए उन अनदेखी ईंटों की तस्वीर खींचकर रख लूँगा. और कुछ नहीं.

{डायरी से. वहाँ तारीख़ है, ग्यारह जनवरी. वक़्त रात साढ़े दस बजे के करीब }

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