पहले दिन की डायरी

साल कुछ ऐसे शुरू होगा, लगता नहीं था. इन बीतते दिनों को देखकर लगता है, मौसम भी कहीं जाकर छुप गया है. उस दिन बस में था, खिड़कियाँ खुली हुई थीं, लोग उन खुली खिड़कियों से झाँकती हवा में एकदम मज़े से थे. यह बात जनवरी में जमती हुई नहीं लगती. लगता है हम दो ढाई महीने आगे ख़िसक गए हैं. यह खिसकना, धरती के नीचे प्लेट खिसकने जैसा मालुम पड़ता है. क्या हमें इन शुरवाती दिनों में ही आगे आने वाले दिनों का ख़ाका खींच लेना चाहिए? हमें क्या करना है? कैसे करना है? पिछली बार की तरह तो बिलकुल भी नहीं सोचना चाहिए? फ़िर अगले ही पल सोचता हूँ, क्या ऐसा सच में ऐसा कोई कर सकता है? हम जिन जगहों पर रहते हैं, वह भी अपनी आज की संरचनाओं को एक दिन में नहीं पलट सकतीं. यह बदलता मौसम आज से पहले ऐसा नहीं था, इसे इसकी स्मृति में वापस लौटते हुए ही तय किया जा सकता है.

जो सोचते हैं, वह एकदम से सब बदल कर रख देंगे, वह जादूगर हैं. उन्हें जादू आता होगा. हमारी दुनिया में उसे आँखों का धोखा कहते हैं. हमें धोखा देना नहीं आता. यहाँ दिन भी धीरे-धीरे उगता है. शाम भी आहिस्ते-आहिस्ते ढलती है. मन में बहुत से ख़याल उग रहे हैं. कुछ हो सकता है, फागुन आते-आते और हरे हो जाएँ. कुछ मुरझाने को होंगे तो पानी दे देंगे. पर वह सपनीले रंग के कागज़ों पर लिखा क्या है? एक अदद ख्व़ाब में किसी किताब को करीने से लिखे दे रहा हूँ. दूसरे में शहर से कहीं दूर शाम के अँधेरे में बैठा कुछ कहने को हूँ. कुछ तस्वीरें खींचनी हैं. उन्हें वहीं से सीधे कहीं लगा देना है. गुलमोहर पर इस दुनिया की बहुत-सी चुगलियाँ करनी हैं. कुछ छुपा ले जानी हैं.

एक ऐसी किताब लिखने का मन है, जिसे सिर्फ़ मैंने लिखा हो. इसके बाद कोई ऐसी किताब लिखने की न सोचे. वह सोचे, तो भी वह कर न पाए. मैं भी यह किसी किताब को देखकर नहीं कह रहा. मेरी किताब बेल की तरह मेरी उमर के साथ बड़ी होती रही है. जो कहूँगा, वह सिर्फ़ मेरा होगा. जो उन्होंने कह दी हैं, वह उनकी हैं. मुझे नकल नहीं करनी आती. न कुछ कहना आता है. शायद इस बहाने कुछ कह पाने का सलीका सीख जाऊं, इसलिए भी लिखुँगा.

मुझे बार-बार कहना नहीं चाहिए पर यह बीतती तारीख़ें इसी तरह मेरे अन्दर उतर रही हैं. जो मेरे आप पास हैं, उन्हें फ़िर-फ़िर न जाने कितनी बार लिखने के लिए कहने वाला हूँ. वह अपनी-अपनी लिख देंगे, तो थोड़ा मेरा काम आसान हो जाएगा. तब मुझे उनके हिस्से का कुछ कम कहना होगा. अगर उन्हें अभी भी नहीं लगता कि ऐसा भी हो सकता है, तब कभी हुआ तो उन्हें अपनी डायरी दिखाऊंगा. वह उन पन्नों से गुज़रकर मान जायेंगे. मैं सिर्फ़ कहता नहीं, उसने हिस्सों को लिख कर अपने पास रख भी लेता हूँ. वह सब मेरे पास बहुत हिस्सों में रखे हुए हैं.

{छह जनवरी, शाम ढलने के बाद. यही कोई सवा सात बजे के करीब..}

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