याद

ऐसे ही एक दो दिन से इस बात की तरफ़ कई ख़याल सैर करने लगे. लगा ऐसा कौन होगा, जिसे सौ दो सौ साल बाद कभी उसके न होने पर कोई याद करेगा? हम अपने परदादा के आगे के नाम भी नहीं जानते. हम इतने सौ साल बाद नहीं होंगे, तब क्योंकर कोई हमें याद करे? यह याद स्मृतियों में छनकर, कब तक अपने ताप से किसी के भीतर उतरती होंगी, इसका भी कोई हिसाब कभी नहीं लगाया. वक़्त के रेशों में कई जड़ें बिन पानी सूख जाती होंगी. पर कोई-न-कोई याद तो रह आता होगा. उसकी कोई बात, कोई पहचान. क्या याद के लिए कहीं किसी भौतिक चिह्न को अपने पीछे रखकर छोड़ देना ज़रूरी है? कैसे हम उन मनों में रह पायेंगे?

किसी के मन में हवा की तरह रह जाना, क्या बचे रहने के लिए इतना ज़रूरी है? यह याद रह जाना ही क्यों ज़रूरी है? कोई भूल कर भी तो याद करता होगा? भूलना याद की हुई चीज़ों का ही होता है. तब सोचता हूँ, याद रहने के लिए किसी नाम में रह जाना क्यों ज़रूरी है? हमने इतिहास में उन्हीं को क्यों याद रखा, जिनके कुछ नाम थे? हम यह कहकर भी उन अनाम स्मृतियों तक नहीं पहुँच पाते, जो हमसे पहले कहीं किसी दुनिया को बना रहे होंगे. उनकी भाषा हमारी भाषा से अलग है, शायद किसी को याद करने के लिए यह भाषा भी उतनी ज़रूरी होती होगी. हम जानी पहचानी हुई चीज़ों को ही याद करते हैं. उसके बाहर याद करने की हमारी शायद हैसियत भी नहीं है.

यह शब्द कहीं खुरदरे भाव से भर देते हैं. हम आने वाले समय को आज महसूस करने की ज़िद से भले भर जाएँ पर वह समय किन बुनावटों में किसी को याद रखेगा, हम आज कैसे कह सकते हैं? कैलेण्डर भी सिर्फ़ बारह महीनों का बहीखाता है. उसकी कुछ संख्याओं से बाहर दिन की तासीर समझ नहीं आती. फ़िर मैं कुछ नहीं करने वाला. मुझे किसी रूपक में तब्दील नहीं होना. मैं कोई प्रतीक नहीं बनना चाहता. मैं चुपचाप इस कमरे के भीतर एक दुनिया बुनना चाहता हूँ. मुझे बाहर की दुनिया से ज़्यादा ज़रूरी भीतर की दुनिया लगती है. इस दुनिया में शायद वही लोग याद बनकर बचे रह पाए, जो हवा, मिट्टी, पानी में घुल मिल गए. सच मैं हवा पानी मिट्टी हो जाना चाहता हूँ. कुछ नहीं हो पाया, तब एक तस्वीर हो जाऊँगा. शायद तब कोई मुझे याद रख पाए. उसे नाम तब भी याद नहीं होगा.

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