कल की तारीख

कल की तारीख़ हमें अपने इतिहास में दर्ज करके रख लेनी चाहिए. कल नौ अगस्त, दो हज़ार सोलह के दिन इरोम शर्मिला सोलह साल बाद अपना अनशन तोड़ने जा रही हैं. इसके बाद वह आंग सान सूकी (बर्मा/ म्यांमार) की तरह सक्रीय राजनीति में प्रवेश करने पर विचार कर सकती हैं. यह घटना आने वाले समय में हमारे लोकतंत्र की सबसे निर्मम व्याख्या बनकर उभरेगी. लोकतंत्र जैसी आधुनिक संस्था का विकास अविरुद्ध होकर कैसा विकृत हो जाता है, इस छवि में हम उन आहटों को महसूस कर सकते हैं. 

हमने अपने लोकतंत्र को सिर्फ़ राजनीति में और उसमें भी ख़ुद को पांच साल साल में एक बार चलने वाले सिक्कों में तब्दील कर लिया है. यह ऐसी टकसाल है, जहाँ कोई भी आये उसकी कीमत बस एक वोट की है. हम अपने एक वोट से इस लोकतंत्र के नाम पर सामानन्तर चलने वाले एवज़ी तंत्र को अपनी वैधता दे रहे हैं. हो सकता है, कुछ लोग कहें कि हम लोकतंत्र को कम करके आँक रहे हैं. तब उन भोले भाले लोगों को अपने चारों तरफ़ सरसरी निगाह दौड़ानी चाहिए. इस सरसरी में भी उन्हें कुछ तो दिख जायेगा. नहीं दिखेगा तो वह मात्र उनका दृष्टिदोष है, हमारा नहीं.

यह बात बिलकुल सही है कि हम अनशन के समाप्त हो जाने पर उसे इस तरह देखने के लिए बाध्य नहीं हैं. पर क्या करें? नज़र यहीं तक जा पा रही है. हम किसी तरह अपनी बात उन तक पहुँचाने के लिए अपने रास्ते चुनते हैं. वह सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून अभी भी अस्तित्व में है, जिसके लिए इरोम शर्मिला सोलह साल आमरण अनशन पर बैठी रहीं. यह एक तरह से लोकतंत्र में एक स्त्री के संवाद स्थापित करने की कोशिश और ख़ुद को इस तंत्र का हिस्सा मनवाने की ज़िद थी. ज़िद थी कि उनकी बात सुनी जाये.

यहीं हम उस अंतर्द्वंद्व की परिधि के भीतर पहुँचते हैं जहाँ लोकतंत्र एक शासन व्यवस्था के रूप में एक राष्ट्र राज्य की स्थापना करता है. ऐसा करते ही वह ख़ुद को किसी दूसरी सत्ता में परिवर्तित करता है और यहीं वह ख़ुद से हार जाता है. राष्ट्र राज्य के रूप में लोकतंत्र की यह सबसे बड़ी पराजय है कि वह अपने शासन को बनाये रखने के लिए कानूनों की मदद लेता है. इन कानूनों में बर्बरता को किसी भी तरह से शून्य करने के कोई प्रयास नहीं किये जाते. बल्कि उन्हें और पैना बनाकर किसी भी विरोधी स्वर को दबाने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है. 

हो सकता है ऊपर की बातों में सैधांतिक रूप से कहीं चूक रह गयी हो. पर व्यवहारिक रूप से पूरा परिदृश्य हमें ऐसा ही नज़र आता है. देश की सीमा के भीतर भौगोलिक नक़्शे बदल जाते हैं पर हालत वही के वही बने रहते हैं. समस्या है, लोकतंत्र अपने भीतर से उठ रहे सवालों के लिए कोई जगह नहीं बना रहा है. जो सवाल पूछ रहे हैं, वह अपने हिस्से जोखिम लेकर आगे आ रहे हैं और अपनी पहचान ज़ाहिर करने की कीमत चुका रहे हैं. 

हो सकता है रवीश कुमार की बात एकदम सही हो. अपनी ज़िन्दगी के सोलह साल देना कोई छोटी बात नहीं. वह भी औरों की तरह सामान्य स्त्री हैं. उनकी अन्य सहज इच्छाएँ भी हैं. पर मुझे अरुंधती राय की बात न जाने क्यों खींचे लेती है. हमें एक दिन उन लोगों में शामिल होना पड़ेगा, जिन्होंने आशा को तर्क से अलग करना सीख लिया है.

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