रोज़ाना

एक बार जब दिन टूट जाये, तब उसे समेटने के अलावा कोई चारा नहीं बचता. इधर यही हो गया है. याद नहीं आता कितने साल पहले यह दिन टूट गए. दिन को रात भी कह सकता हूँ पर नहीं कहूँगा. दिन में रौशनी है. रात में चाँद है. पर फ़िर भी नहीं. कितना वक़्त सिर्फ़ इसी बात को सोचते-सोचते बीत गया कि कभी अपने रोज़ाना पर लिखूँगा. एक दौर वह भी था कभी, जब हम अपने इस रोजाना को टूटने से बचाने की एवज़ में उसे लिख लिया करते थे. मतलब पूरे दिन कौन-कौन सी आदतों, बातों, फ़िज़ूलखर्ची में कहाँ, कितने, कैसे और क्यों बीत रहे हैं, सब. न जाने यह धागा कब चिटक गया. आज भी जब लिखने बैठा हूँ, तो वही पन्ने याद आ रहे हैं. उनपर यह नहीं लिखा कि दिनों के गट्ठर कैसे बीत रहे हैं? उनमें क्या-क्या कर रहा हूँ? बस लिखा तो मन की परतों को उघाड़ता रहा. कोई उनसे गुज़र कर यह तो जान सकता है, मन में क्या चल रहा है(?) पर वह रोजाना कैसे बुन रहा हूँ, उसकी कोई टोह भी नहीं ले सकता. इसे शायद चालाकी से उन दिनों को छिपा ले जाना कहते होंगे. फ़िर जब एकबार यह सिलसिला चल निकला, आज तक बस सोचता ही रहा. अभी भी कितना लिख पाउँगा, कह नहीं सकता. शायद जब से भागना शुरू किया मेरा रोज़ाना सबसे जादा टूटा. करने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं बचा. 

सोच भी नहीं पा रहा, वह सारे दिन कैसे बीत गए. शायद उनसे बचता रहा. दिन तिल से पहाड़ की तरह बनते गए. रुई की तरह गीले हो गए. मेरे मन में वह टूटन उस रेशम के धागे से भी बारीक होती गयी, जिसे कहने के लिए छटपटाता रहता. पर कह नहीं पाता. उसे कहना सबके सामने बेपर्दा कर देना है. पर मैंने परदे के साथ कहना शुरू कर दिया. कोई बारहदरी में सबसे अन्दर की दर में कभी दाख़िल नहीं हो पाया. सब बाल्टी में पानी की सतह पर कपड़े धोने वाले ख़राब डिटरजंट की तरह बने रहे. मैंने कभी किसी को अन्दर घुलने नहीं दिया. जिसने भी देखा, कई-कई बार पूछा. उन्हें कई-कई बार बताया. मेरे लिखे में इतनी परतें दिखती कि उन्हें फाँके नहीं कहा जा सकता. वह हरबार धरती में पायी जाने वाली मिट्टी और हमारी हथेली में पायी जाने वाली सात परतों का जोड़ निकलती. 

एक वक़्त आया यह समझाना बंद कर दिया. ख़ुद को इतना पीछे कर लिया कि एक पंक्ति में भी ख़ुद को कहने लगा. पर वह एक पंक्ति कौन सी होने वाली है, यह कोई नहीं जान पाया. यह लिखना ही मेरा रोज़ाना है शायद. वरना सुबह उठाना रात सोना तो सब करते हैं. इस रात दिन के बीच हमेशा ख़ुद को इसी में पाता हूँ. चाहे लिख न रहा हूँ, तब भी मन में पता नहीं क्या-क्या चलता रहता है. इस मन को खाली करने के लिए ही तो एक दिन लिखना शुरू किया था. पर जब लिखना शुरू किया, तब से जाना, सब कह देना ही सब कुछ नहीं है, कुछ अपने पास रख लेना भी बहुत ज़रूरी है. इस लिखने के दबाव ने पिछली नोटबुक छुड़वा दी. अब इस नयी जगह भी ख़ुद से सामना नहीं कर रहा. इस तरह से ख़ुद को सामने रखने से बचता हूँ. बचने के बहाने खोजता हूँ. आज नहीं बच पाया, तो कह दिया.

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