दिल, किस्सा, कलाई

यह इस शहर के मौसम में ही संभव हो सकता था कि घण्टों से यह पंखा चलता रहे और हवा का एक झोंका भी मुझे न लगे. मुझे क्या, जो-जो इस गरमी उमस और बारिश के इंतज़ार में इन छत पंखों के नीचे बैठे हैं, वह सब इसी मनोदशा से गुज़र रहे होंगे. बीती रात की बात  को इसी का विस्तार समझा जाना चाहिए. दिमाग कैसे ठिकाने पर रह सकता है? चालीस डिग्री की इस भट्ठी को हमने घर का नाम दे दिया है. कुछ इसे दिल्ली के नाम से जानते समझते रहे हैं. कोई मच्छर है हरामी साला काटकर अभी चला गया. बिलबिलाने के पहले की सारी हरकतें वह पहले भी कर चुका है. एक सपने से लौट आने के बाद इन पिघलती शामों में कहीं कोई एक पेड़ की छाव भी मयस्सर नहीं होती. नौकरी एक ठौर होती. उसे सबकी नज़र लग गयी. नज़र दूर से उसे घूर रही थी. जिसे घूर लो वह कभी पास नहीं आती.  वह भी कहीं अरझ गयी. 

अरझ असल में मैं गया हूँ. इन रवायतों में. चलन जैसा है उसमें. ख़ुद को साबित किये बिना कोई नहीं देखता, कौन हैं हम? हमारा भी मन होता है. कभी-कभी मन नहीं होता है. तब दिल दुखता है. कोई नहीं सुनता तब इन धड़कनों की मद्धम लय. कोई लय होती भी नहीं हैं कहीं. 

न दिन में न रात में. कहीं नहीं. कोई नहीं होता जो पूछे. क्या हुआ? कैसे हो? पूछे तो तब, जब हमने कुछ कहा हो. कहना ज़रूरी नहीं लगता. ज़रूरी नहीं लगता सब कुछ बताना. क्या क्या बताता चलूँ? क्या नहीं. समझ नहीं पाता. 

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