दिन, मेज़, सपने और गाँव का बहाना

इतवार। हलके से शुरू होता अलसाया-सा दिन। उठने को न कहता। चुपचाप रहता। बस इसी पल कहीं और लेजाने को मजबूर करने लगता। पीछे। कहीं दूर से सबकुछ देखने को होता। किसने इस छुट्टी को बनाया होगा? बनाया नहीं, छीन लिया होगा। उसने भी कहीं गुमसुम बीतते वक़्त को निहारने के लिए इसे चुना होगा। हम भी इसी में ख़ुद को बनते बिगड़ते देखते रहते। अप्रैल के बाद आने वाले दो महीने हमारे लिए लम्बी छुट्टी हुआ करते। जल्दी-जल्दी दिल्ली से भागकर गाँव चले जाने के दिन। हम सब जो आहिस्ते-आहिस्ते बड़े हो रहे थे सब देख रहे थे। गाँव में क्या होता है? गाँव हमारा नया रोज़ाना बना करता। 

यह पंक्तियाँ न जाने कितनी ही बार अपने अन्दर दोहरा चुका हूँ, ख़ुद याद नहीं आता। बस इस शहर से भाग लेने का मन किये रहता है। गाँव हमारे लिए वह जगह थी जहाँ हम इस शहर की तरह नहीं रहा करते थे। वही ऊबती सुबह मुरझाये हुए चेहरे। गर्मियों की छुट्टियों में गाँव जाना है, यही हमारे लिए पूरे साल ख़ुद को खींच लेने के लिए ताकत की तरह काम आता। हम गाँव तो जाते पर वहाँ भी हमारी पहचान ‘दिल्ली से आये हैं’ कहकर होती। हम उनमें से नहीं थे। यह एक क़िस्म की दूरी थी। कह नहीं सकता। अभी मैं किसी नृतत्वशास्त्री की तरह इन पन्नों को झाड़ने नहीं वाला। अभी मन भी नहीं है। मन नहीं है कहीं भी कुछ भी करते रहने का। बस बैठा रहूँ। बैठा रहूँ।

अभी तो बस एक मेज़ जिसे कल रात बड़ी मेहनत से साफ़ किया है, उसी को देख रहा हूँ। कुछ भी इधर से उधर नहीं हुआ है। बस किताबों को एक तरफ़ कर दिया है और पिछले दो सालों में जो प्रिंट लिए थे, उन्हें किनारे लगा दिया है। नीचे तराई में कुछ पैन हैं। स्याही रखी है। कलमदान है। कुछ बेतरतीब पड़े कागज़ हैं। मेरी लिखने की तीन अलग-अलग डायरियाँ हैं। कैमरा पड़ा है। स्टेपलर, मार्कर, पैंसिल छीलने वाला शार्पनर, एक पैन ड्राइव, माचिस की डिबिया, एवररेडी की बैटरी सब मेरे बीते बिखरे दिनों से पड़े हैं। कुछ यादें हैं। कुछ अनलिखे ख़त हैं।

मेज़ पर पड़ी किताबें वक़्त माँगती हैं। मन इस गरमी में सोने के अलावे कुछ करने को नहीं होता। जब यह वाई-फाई सिग्नल नहीं पकड़ रहा था तब जो कुछ लिख लिया करता था वह भी छूट जाता। हफ़्ते से कुछ दो चार दिन जादा ही खराब रहा होगा। रवि ने देखा तब नेहरू प्लेस ले गया। वहीँ से बुधवार को ठीक करवाकर लाया। बिजनौर का लड़का था। एमएससी पास। छोटे भाई की दूकान थी, अब वही संभालता है। भाभी एम्स से पीएचडी कर रही हैं। और भी पता नहीं कौन कौन सी बातें हुईं उन डेढ़ घंटे में। कार्ड ले आया हूँ। कभी जायेंगे। फ़िर। इस मौसम में कहीं निकलने का मन भी होता कहाँ है। बस ऐसी ही झुलसते झुलसते कमरे में बैठे रहते हैं। अकेला रहता हूँ तब तक पंखा नहीं चलता। मेरे लिए हर दिन मेरे इस घर पृथ्वी के लिए है। कुछ मन नहीं होता। कुछ पसीने में ख़याल आते हैं। इसलिए। एक अलग ही ‘फील’ मिलता है कमरे का। खिड़की से आती रौशनी से बैठकर ख़ूब बात किया करता रहता।

‘टिकट नहीं है’ का रोना नहीं रोना चाहता। मन है, दस दिन के लिए ही सही, इसबार दो साल बाद गाँव चले जाएँ। उन जगहों के बदल जाने से जादा उन सब हाण्ड माँस के लोगों से मिलने का मन है।

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