हमारी सांस्कृतिक अज्ञानता

हमें निज़ामुद्दीन से भुसावल जाने वाली गोंडवाना एक्सप्रेस में बैठे यही कोई दो-तीन घंटे हो चुके थे। हमारी बातचीत विवाह के बाद स्त्री के पास कुछ चिन्हों के रूप में छूट गयी सांस्कृतिक वस्तुओं पर चल रही थी। स्त्री की माँग में सिंदूर, गले में मंगलसूत्र और पैरों में बिछिया उसके विवाहित होने के प्रमाण माने जाते हैं। पुरुष ऐसे किसी भी चिन्हशास्त्र से मुक्त है। वह जब तक ख़ुद न बताए कोई नहीं जान सकता वह शादीशुदा है। विजिता इन प्रतीकों को छोड़ने के पक्ष में अपनी बात कह रही थी कि तभी बगल से एक अँग्रेजी बोलने वाला युवक हमारी चर्चा में शामिल होने की बात कहता हुआ आया। हम भी बात आगे बढ़ाना चाहते थे और उनके आने के बाद हम उन्हें सुनना चाहते थे।

अमेरिका की माइक्रोसॉफ़्ट कंपनी में काम करने वाले वह सज्जन सबसे पहले अपनी आपत्ति दर्ज़ कराते हैं। उनकी आपत्ति हमारे अज्ञान को लेकर थी। हम यह भी नहीं जानते थे कि मंगलसूत्र में सात मोती होते हैं और इसको किसी स्त्री द्वारा निकालने का बिलकुल वही अर्थ है, जो ईसाई धर्म में विवाहित स्त्री या पुरुष के अपने हाथ में पहनी उँगली से अँगूठी निकालने से लिया जाता है। हम लोग अपनी स्मृतियों में पुरुषों द्वारा पहने जाने वाले ऐसे किसी मंगल-सूत्र को तलाश रहे थे, तभी उनके द्वारा एक और सवाल हमारी तरफ़ दाग दिया गया कि हम लोग अपनी संस्कृति को नहीं बचाएंगे तो उसे कौन बचाएगा? वह इस उपक्रम में सिलसिलेवार तरीके से हिन्दू रीति से होने वाले विवाह संस्कार पर अपना तफ़सरा देने लगे। लकड़ी का वह पीढ़ा, जिसमें कोई भी कील नहीं लगती, दो आत्माओं का मिलन स्थल है। अग्नि कुछ और नहीं दोनों आत्माओं के ध्यान को भटकाने के बचाने वाली युक्ति के रूप में प्रयुक्त की जाती है। मण्डप एक खास आकृति में ही बनाया जाता है, जिसका अर्थ स्त्री-पुरुष की देह की आकृति से लिया जाता है।

वह सब हमें इसलिए भी बता पा रहे हैं क्योंकि उन्होने देविदत्त पटनायक की हाल फ़िलहाल कोई किताब नहीं पढ़ी थी बल्कि उन पौराणिक विद्वानों से यह ज्ञान अर्जित किया है। और चूंकि वह एक ‘ब्राहमिन’ परिवार से संबद्ध हैं, इसलिए इसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध थी।

उन्होंने अपनी संस्कृति बचाने ले लिए क्या किया(?) यह किसी त्रासद कहानी से कम नहीं है। वह बताना तो नहीं चाह रहे थे पर शायद हम लोगों को संस्कृति के रक्षक के रूप में देखने का लोभ पाकर वह रह न पाये होंगे। वह कैसे एक ब्राह्मण परिवार में पैदा होकर किसी पंजाबी युवती से विवाह करके अपने संस्कारों को बचा पाते? उनके होने वाले बच्चे किस धर्म में दीक्षित होते? क्या वह उन्हें अपनी पारिवारिक विरासत को ठीक ठाक हस्तांतरित कर पाते? शायद नहीं। इसलिए वह अपने प्रेम को अपनी जाति की शुद्धता और संस्कृति के नाम पर वहीं छोड़ देते हैं। उससे शादी नहीं करते। पढ़ना-लिखना उन्हें बेहतर इंसान नहीं बना पाया। वह बस एक भगोड़े प्रेमी बनकर रह गए। वह अपने हिस्से की बातें कहकर अपनी सीट पर चले गए थे और शायद झाँसी के बाद कहीं उतर गए होंगे। मेरा दिमाग घूमने लगा था। सर अपनी किताब में विलियम ली पार्कर के हवाले से बताते हैं कि औपनिवेशिक सत्ता के लिए रेलगाड़ियाँ किस तरह शैक्षिक संस्था के समान थीं। वह ‘नागरिक’ गढ़ने के लिए उनका एक औज़ार थीं।

आज इसतरह यह रेल हमें एक संस्कृति में ढालने के लिए उपयोग में लायी जा रही थी। यह उन अर्थों से कहीं आगे के अर्थ होंगे। लेकिन अपनी पूरी बातचीत के दरमियान में वह इतना पढ़ लिखकर भी नहीं बता पाये कि संस्कृति से वे क्या समझते हैं? वह जो बता पाये, उसमें स्त्री को कहाँ तक स्वतन्त्रता दी जाये, उसका निर्णय करने वाले की भूमिका में पुरुष आज इक्कीसवीं सदी में भी उपस्थित है। मीनाक्षी अगर इस बात पर अपना विरोध दर्ज़ न कराती, तब वह अपनी बात से पीछे नहीं हटते। उन्होने जब उस लड़की से प्यार किया होगा, तब क्यों यह सब नहीं सोचा। आज वह हमारे सामने उसे छोड़ने की बात को लेकर किसी पछतावे से भरा महसूस नहीं कर रहे। उनके लिए शायद यही उनकी संस्कृति की रक्षा थी, जिसमें कोई मिलावट नहीं थी। दूसरी तरफ़ हम थे, जो मिलावटी थे। हम पढे-लिखे थे पर हम शायद अपनी संस्कृति पर बात कर रहे थे, उसपर सवाल उठा रहे थे इसीलिए वह हमसे बात करना चाह रहे थे। 

वह हमें एहसास करवाना चाहते थे, हम पढ़ लिखकर अपनी संस्कृति से कट गए हैं। लेकिन जिस पढ़ाई ने उन्हें प्यार करना नहीं सिखाया, हम उस संस्कृति को बचा कर क्या करेंगे? हम ऐसे ही ठीक हैं।

( ऊपर वाली तस्वीर Steve McCurry के ब्लॉग से..और कल जनसत्ता में, 'दुनिया मेरे आगे' स्तम्भ का हिस्सा )

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