मुड़कर देखना

आँखें कभी झूठ नहीं बोलतीं। एक बोलने की कोशिश करेगी तो दूसरी बता देगी, सच क्या है? हम वहीं खड़े हैं। तुम अचानक पीछे मुड़कर देखती हो। इस एक क्षण को लिखने के लिए रात से पंक्तियाँ बुन रहा हूँ। पता नहीं ऐसा क्यों लगा, उन सरसरी निगाहों में कहीं कुछ छूटते चले जाने का एहसास भी रहा होगा। कहीं थोड़ी देर और रुक जाने की तमन्ना रही होगी। कुछ देर उन छूट रहे लोगों के साथ वहीं खड़े रहने का मन रहा होगा। यह भी हो सकता है, इनमें से ऐसा कोई भी भाव तुमने अंदर न आने दिया हो। पर बताओ। तुम्हारी आँखों का क्या करूँ? वह हमारे अंदर झाँककर बाहर देखती हैं। उन्होंने ही बताया मुझे। क्या, गलत कहा मैंने कुछ।

शायद यूँ होता, हम भी उनमें शामिल हो जाते। पर नहीं हो पाये। शायद यूँ होता, तुम रुक जाती। हममें शामिल हो जाती। दोनों स्थितियाँ इतनी सरल नहीं हैं। न हमारे लिए न तुम्हारे लिए। तब क्या करें। बस मुड़-मुड़ कर देखते रहें? नहीं। तब। तब? तब करना सिर्फ़ इतना ही है, अपने मन को या तो मार लेना है। या उसके दायरे को फैला कर इतना बड़ा कर लेना है, जिसमें कई और दायरे हों।

हो सकता है, अपनी स्मृतियों में तुम मुझे भी इस स्थिति में देख पाओ। मैंने साथ होना चुना है, यह मेरे मन के अंदर से बाहर आते निर्णयों का ही प्रतिफल है। मैं उनमें रह गया, जो वहीं खड़े हैं। खड़े हैं, तुम्हें देख रहे हैं। यह सिर्फ़ चुनने न चुनने का नहीं, उससे भी कहीं अधिक भावुकता का प्रश्न है। मन न मिले, तो लोग छूट जाते हैं। तुम्हारे अंदर यह छूटना लगातार देख रहा हूँ। तुम जहाँ हो, उस जगह को छोड़ने का मन बना रही होगी।

हो सकता है, एक दिन, जब तुम हमारे साथ खड़ी होगी और उधर चलकर जा रहे लोग छूटते जा रहे होंगे। हम अपनी निर्मितियों को ख़ुद बनाते हैं। उनमें ख़ूब खींचातान होता है। छोड़ने न छोड़ने से पहले कितना कुछ अंदर टूट कर बिखर जाता है। हम जिसे कह नहीं पाते, उसे आँखें कह जाती है। जब यह सब मैं लिख रहा हूँ, तो मतलब कहीं-न-कहीं यह सारी बातें, समान रूप से मेरे अंदर उमड़-घुमड़ रही होंगी। उसकी सघनता को नहीं कह सकता पर यह उनती ही मेरी भी हैं, जितनी तुम्हारी। पता नहीं यह कैसा एहसास है। बस कल तुम्हारी तस्वीर देखकर यही लगा। किसी को बताना मत। मुझे भी नहीं। सही हूँ या नहीं, यह भी नहीं। मैं अपने आप समझ जाऊँगा।

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