इतिहास से पहले

जबकि मुझे पता है, यहाँ लिखा हुआ किसी और के लिए नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे लिए हैं, तब भी हमें इस सवाल से भी जूझना होगा इस माध्यम को चुनने का क्या कारण रहा? यह बहस एकदम बेकार लगते हुए भी हर बार मुझे खींच लेती है। आज भी मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं है। मैं तो बस कुछ-कुछ कहने के लिए यहाँ बार-बार आने जाने वाला एक अदना-सा 'नैरोकास्टर' ठहरा, जिसकी वैबसाइट पर आने वालों की कोई भीड़ नहीं है। कभी इसके 'क्रैश' होने की खबर मुझ तक नहीं पहुँची। सब शांत भाव से चलता रहा है। क्या सच में सब इतना सरल सपाट है? पता नहीं। कहीं और भी व्यवस्थाएं होंगी जो इसमें बिन सामने आए अपनी भूमिकाएँ निभा रही होंगी। उनका नज़र न आना उनके अस्तित्व को नकार देना नहीं है। यह देश भी कोई एक दिन में खड़ा नहीं हो गया। अभी भी खड़ा होने की कोशिश कर रहा है। कौन लोग थे, कौन लोग हैं(?) जो लगातार इसकी नींव बनते रहे हैं और नज़र नहीं आते। हो सकता है, आपके लिए यह दोनों सवाल अलग-अलग हों लेकिन एक बिन्दु पर यह एक ही जगह से निकले हैं। कौन है जो हम सभी को नेपथ्य में धकेल कर हमें चमत्कृत कर देने की नियत से हमारे सामने है? वह कौन-सी संस्थाएं, विचार, प्रति-विचार हैं जो इस तरह लिखित इतिहास को ही एकमात्र इतिहास मान लेने की चालाकी से भर गए हैं।

हम मानते हैं, हमने भगत सिंह को नहीं देखा पर अपनी पुरानी कक्षाओं में इतिहास को पढ़ते हुए हम उन्हें थोड़ा बहुत जान जाते हैं। लेकिन फ़िल्म बनाने वाले यह नहीं बताते वह कितने कल्पनाशील थे कि उनके मस्तिष्क की परतों में किसी राष्ट्र की समझ किस तरह निर्मित हो रही थी। वह सब उन्हें एक साहसी, देशभक्त के रूप में अंकित करते हुए चलते हैं। यहाँ 'लिखित' और 'लोकप्रिय' में अंतर करने की नज़र हमें चाहिए जो बता सके, एक तेईस साल का युवक फाँसी दिये जाने के समय किन भावों से भर गया होगा? अगर वह मेरे भगत सिंह होते तो मैं उन्हें कैसे रचता, एक उलझाने वाले सवाल की तरह मेरे सामने खड़ा होता। ख़ुद से पूछता। उस उम्र में मेरी कल्पनाओं में किस तरह चीज़ें निर्मित हो रही थीं। देश के लिए मरना कितनी बड़ी बात रही हो लेकिन मर जाने का विचार अंदर से डराता है। यह कैसे हुआ होगा कि निर्भीकता हमें हमारे अतीत में न ले जाये? वह एक-एक दिन सोते नहीं होंगे। जैसे-जैसे दिन पास आ रहे होंगे, पता नहीं किन स्मृतियों में डूबकर उन्हें वह रोज़ याद किया करते होंगे?

मैं तो इस उम्र में किसी के प्यार में पड़ने की बात सोचकर अपने ख़यालों में निपट लिया होता। सोचता हूँ, अगर भगत सिंह की शादी हो गयी होती, तब क्या वह उस जेल से भागने की नहीं सोचते? मैं होता तो ज़रूर सोचता। अगर भागते हुए किसी संगीन से मर जाता, तब क्या यह मेरे देश के लिए बलिदान नहीं माना जाता? या उसमें इस तरह के किए संशोधन की कोई जगह नहीं है? चलिये पत्नी नहीं, पत्नी की जगह माँ को रख देते हैं। तब जेल से भागने की घटना इतिहास में भगत सिंह के साथ कैसा बर्ताव करती? मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। मेरे पास अपना उत्तर है। मैं होता तो थोड़ा और जीना चाहता। जितनी बार होता, उतनी बार भागता। लेकिन हम भगत सिंह से कुछ दूसरी अपेक्षा करते हैं। हम चाहते हैं, वह एक बारी में एक के साथ प्यार करें। इश्क़ अगर बीवी से था, तब क्यों इस लफड़े में पड़े? काश! वह शादी कर लेते, तब देखते क्रांति की किन परिभाषाओं को वह गढ़ते।

ख़ैर, मेरे भगत सिंह आज भी मेरी कल्पनाओं में उन काली अँधेरी कोठरी में उसे रोते हुए दिखाई देते हैं। वह भी एक आम इंसान हैं। मरने के खयाल से कुछ-कुछ डर उन्हें भी लगता। 'आज मैं हूँ, कल मैं नहीं रहूँगा' जैसे विचार को अपने मन में एक मिनट से भी ज़्यादा देर तक अपने दिमाग को रख कर देखिये, अपनी औकात पता चलते देर नहीं लगेगी। कौन देख रहा था उन्हें? कोई नहीं। वह भी रोना चाहते थे। रोये भी होंगे। विचार हमें कठोर करते हैं लेकिन मृत्यु हमें संवेदनशील बनती है। तब मनोज कुमार, राजकुमार संतोषी किसी का भी कैमरा वहाँ जेल के भीतर नहीं था। उन्हें नहीं पता था, एक दिन ऐसे भगत सिंह की छवि बनकर उभरने लगेगी, जिसकी आँख में आँसू तक नहीं हैं। शायद उन्होंने अपनी जेल डायरी में वह पन्ने लिखे होंगे, बाद में किसी ने फाड़ दिये होंगे। वह भी एक रात सोकर उगते सूरज को देखना चाहते थे। इतिहास हमें यही नहीं बताता। हमें यही अपनी तरफ़ से रचना है।

इस तरह हम अपना, उनका, सबका इतिहास ख़ुद बनाएँगे। बनाकर रहेंगे।

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