कई चाँद थे सरे आसमां

यह एक निजी पोस्ट है। इसलिए कुछ कहने से पहले सोचना ज़रूरी नहीं।

इस डिस्क्लेमर के बाद कुछ भी कहना बाकी नहीं रह जाता। आज दोपहर इस फरवरी की किसी याद में मन कहीं खो गया। इधर मन कुछ ऐसे ही होने लगा है। अजीब-सा। हरदम इतना भरा लगता है, जैसे वक़्त नहीं मिलता। लिखना छूट न जाए इसलिए यहाँ दोबारा आ गया था। पर इसे बचा ले जाना मुश्किल लग रहा है। मुश्किल लिखने में नहीं, उस वक़्त को अपने पास बरक़रार रखने की जद्दोजहद में दिमाग का कचूमर निकल जाने में है। हम जिस दौर में लिख रहे हैं, वहाँ यह एक सकर्मक क्रिया है। यह ऐसा वक़्त है, जब लगता है, हम सबको एक साथ अलग-अलग भाषा में अपने-अपने हिस्से के अनुभवों को लिख कर रख लेना चाहिए। जो ऐसा नहीं कह रहे, वह चुप रहकर ख़ुद को दर्ज़ करने की किसी भी संभावना से हट रहे हैं।

अभी शाम ऊपर गया, दोबारा डायरी उठाकर देखी। बहुत अजीब तरह से वह शब्द अपनी तरफ़ खींच रहे थे। पर उसे उठाकर लिख नहीं पाया। लेकिन एक घंटे से इधर एक चीज़ ख़ुद में देख रहा हूँ, जब से मेरा लिखना कम हुआ है या इसे इस तरह बेहतर समझ सकते हैं कि जबसे लिखने से बचने लगा हूँ, तबसे हर किसी से लिखने के लिए कहने लगा हूँ। यह परिवर्तन पता नहीं कहाँ से आया। पर आ गया है। यह उम्मीद ही है उनसे ज़िद करने लगता हूँ। लिखो। लिख सकती हो। शायद यह ख़ुद को तलाशने की तरह नयी पड़ताल हो। या आगे चलकर कुछ भी न हो। कोई फ़र्क नहीं पड़ता। फ़र्क पड़ता है, एक दूसरे की परतों में ख़ुद की परछाईं तलाशने से। मैं एक दिन, तुम सबमें परछाईं बन जाऊंगा। यह सूरज, चाँद, मोमबत्ती की से अलग तुम्हारी रौशनी में बन रही होगी। बची रह गयी होगी।

बच जाना, अँधेरे में छिपने से बेहतर रहा है, हमेशा। हम जब तक यह समझते हैं, तब हम समझदार हो चुके होते हैं। मैं भी थोड़ा रहा होऊंगा। पर अब और समझदार नहीं हो सकता। जबकि जान गया हूँ, यह दुनिया समझदार दिखने वाले बेवकूफ़ों से भरा कबाड़ है। कबाड़ भी ऐसा जो दिमाग से दीमकों को ख़ुद में पालता है। हम जितने भी तरह से इसे कहना चाहें, उसमें पसीने की बदबू, पेशाब के सुख जाने का इंतज़ार, उस बाज़ार से खरीदे पैड पर खून की खुरदरी दर्द भरी रेखाएँ सब कुछ कह रही हैं। हो सकता है, हम इन्हें एक दिन अपने घरों में मढ़वाकर दीवार से टाँग लेंगे। ताकि घड़ी के साथ वह वक़्त भी दर्ज़ होता रहे, जो कभी किसी ने देख कर भी नहीं देखा। बस इन सारी बातों को उन दीमकों और खटमलों से बचा ले जाने की दवाई ज़रूर खरीद लेवें। काम आती है। काम आएगी। पड़ोसी भी माँग सकता है।

टिप्पणियाँ

  1. उत्तर
    1. 'कृपा' तो निर्मल बाबाओं का हथियार है। उनकी तिजोरी का पैसा। हम ठहरे अदने से। हम मन से नहीं दिल से कहते हैं। आप भी लिखें, इसलिए इसे लिखा गया है। बाकी शुभकामनायें हमारी साथ हैं। आप लिखिए।

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    2. कृपया likha tha maine bhai शचीन्द्र

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  2. aapke likhe kuch post padhe..achha likhte hain..lekin har ek post mein kuch aise ansh lagte hain jo behad achhe lagte hain aur kuch aise jo bilkul nirarthak ya bewaajah lagte hain..aisa shayad mere na samajh pane ki wajah se bhi ho sakta hai...khair jab aapne kaha ki logo ko likhne ke liye kehne lga hu to sochne lagi ki ek niji rehsyamayi diary mein likhne aur blog pe likhne..un dono hi lekhon mein kya antar hota hoga? agar haan to kitna? kya ye kabhi ek ho payenge..jaise ki aapne bhi kaha apne post mein aur koshish bhi ki bht baar phir chipane ki..kahi is chipane ki koshish mein apni talash adhuri to nahi reh jati? ye sawal yunhi mann mein aaye..inka jawab aap se nahi mang rahi..likhte rahiye

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    1. मेरी दिक्कत (अगर इसे दिक्कत कहेंगे तो) यह है कि ख़ुद से बच नहीं पाता. धागे महीन रखता हूँ पर गाँठें दिख जाती हैं. कहना बचा रहे, इसलिए ढो रहा हूँ. जैसे उस दिन कह रहा था मैं, एक समय आएगा डायरी और ब्लॉग के बीच की धुंधली से दिखती रेखा भी नहीं दिखेगी. इसे साधना मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं. बस हो सकता है असा करते हुए भाषा कुछ और रूप ले ले. या उसमें बातें ऐसे गुथ जाएँ कि बहुत अन्दर पहुँचने वाले को ही वह सब नज़र आये. पिछली जगह तो कई बार डायरी में न लिखकर सीधे ब्लॉग पर लिख लेता था. पर अब बचना चाहता हूँ, ख़ुद से.

      मैं इस तरह यहाँ सवालों के जवाब नहीं दे रहा बस याद गाद्गारी के लिए लिख दे रहा हूँ. कि इस वक़्त इस समय क्या सोचता हूँ. हो सकता है, आगे इसमें कुछ बदलाव आये, तो हम उसे पकड़ सकें.

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