लिखने से पहले..
कभी-कभी हम कुछ नहीं सोचते। जितना अभी तक सोच रखा होता है, उससे निकलने की ज़िद से भर जाते हैं। मैं भी भर गया हूँ, इस वजन से। यह दिखने न दिखने में जैसा भी है, अभी मेरे मन में है। यह कहीं से भाग आने, उन भाग आने के कारणों को वजहों में तब्दील करने के बाद भी बेचैनी ख़त्म नहीं हो रही। सोचा था, एकबारगी सब ठीक हो जाएगा। पर क्या देख रहा हूँ(?) सब ढाँचे अपनी संरचनाओं के साथ वैसे के वैसे बने हुए हैं। कहीं से भी कोई टस से मस नहीं हुआ है। उल्टे वहाँ से चले आने की वजहों में उनके भीतर देख पाने जैसे किसी चीज़ को भी साथ जोड़ पाया हूँ तो वह यह कि इस दुनिया में हम जितने भी हैं, यह दुनिया जिसमें हम कभी दूर से चलकर दाख़िल हुए थे, यह अब हम पर हावी ही नहीं बल्कि हमारी नयी किस्म की जीवनशैली बन गयी है।
इस तरह यह किसी इतिहास के छात्र के लिए इतनी ठोस नहीं है, जितनी समाजशास्त्र के जानने समझने वाले किसी मस्तिष्क के लिए नए प्रस्थान बिन्दु हैं। फ़िर यह इतनी सूक्ष्म बात भी नहीं है, जिसे समझने के लिए समाज मनोविज्ञान की कक्षाओं में बैठना पड़े। बैठकर वहाँ समझना पड़े। उलझना पड़े।
मैं ख़ुद नहीं समझ पा रहा, आज पहली बार यहाँ लिखने की कोशिश में मेरी भाषा को क्या हो गया है? एक बार मैंने कहीं कहा था, जितनी इस दुनिया की वास्तविकतायें जटिल होती जा रही हैं, उसी अनुपात में हमारी उसे समझने की तरकीबें जटिल होती जाएँगी। क्या यह सच में जटिल होने के साथ अमूर्त भी होती गयी है? पता नहीं। पर एक बात और जो नज़र आ रही है, वह इसी भाषा के स्तर पर कही जाने लायक बात बन गयी है कि मेरे पास जितने भी कहने के औज़ार थे, वह सब इतने भोथरे होते गए हैं के उन्हें कहने के लिए इतनी जटिलता को साथ ओढ़ लेना पड़ रहा है। यह सहज न हो पाना है। जहाँ सहजता नहीं होती, वहाँ सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं होता।
इस तरह यह किसी इतिहास के छात्र के लिए इतनी ठोस नहीं है, जितनी समाजशास्त्र के जानने समझने वाले किसी मस्तिष्क के लिए नए प्रस्थान बिन्दु हैं। फ़िर यह इतनी सूक्ष्म बात भी नहीं है, जिसे समझने के लिए समाज मनोविज्ञान की कक्षाओं में बैठना पड़े। बैठकर वहाँ समझना पड़े। उलझना पड़े।
मैं ख़ुद नहीं समझ पा रहा, आज पहली बार यहाँ लिखने की कोशिश में मेरी भाषा को क्या हो गया है? एक बार मैंने कहीं कहा था, जितनी इस दुनिया की वास्तविकतायें जटिल होती जा रही हैं, उसी अनुपात में हमारी उसे समझने की तरकीबें जटिल होती जाएँगी। क्या यह सच में जटिल होने के साथ अमूर्त भी होती गयी है? पता नहीं। पर एक बात और जो नज़र आ रही है, वह इसी भाषा के स्तर पर कही जाने लायक बात बन गयी है कि मेरे पास जितने भी कहने के औज़ार थे, वह सब इतने भोथरे होते गए हैं के उन्हें कहने के लिए इतनी जटिलता को साथ ओढ़ लेना पड़ रहा है। यह सहज न हो पाना है। जहाँ सहजता नहीं होती, वहाँ सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं होता।
यह सीधे-सीधे प्रत्यक्ष प्रकट रूप में हमारे 'रोज़ाना' का मसला है, जहाँ इन तकनीक आधारित प्रतिरूपों से हम इतने घिरे हुए हैं के फ़ुरसत के पल हम इन्हीं में तलाश रहे हैं। हमारे पास खींचतान के बाद जितने भी पल हैं, वह सब हम एक ही जगह 'निवेश' कर रहे हैं। हमारा यह 'अधिशेष' किस तरह की दुनिया रच रहा है(?) अभी हम हम इस सवाल तक नहीं पहुँचे हैं। पहुँचने में कितना वक़्त लगेगा और तब तक हम अपनी ज़ेबों और ब्लाउज़ के कोनों से कितना कितना और वक़्त निकालकर यहाँ लगा चुके होंगे, इसका कोई हिसाब लगाने वाला नहीं है। लेकिन एक दिन आएगा, जब हमें यह काम भी करना होगा। ज़रूर से करना होगा। वह आविष्कार जिन्होने दुनिया को थोड़ा-सा भी रहने लायक बनाया और जिन्होने इस दुनिया को रहने लायक नहीं छोड़ा, सबका अध्ययन होगा। सब देखेंगे लोकतन्त्र, बंदूक, पानी, हवा सब एक तरफ़ हो गए हैं और दूसरी तरफ़ सिर्फ़ रह गयी है हिंसा। कोई मानने को तय्यार नहीं होगा, वह परमाणु बम जिस देश के देश काल में बना, उसने तब से लेकर आज तक उसने हमें डर के साये में जीने के अलावे कुछ और नहीं दिया। डर, हिंसा की तरफ़ बढ़ गया पहला अदृश्य कदम है।
हम इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए एक गलत जगह जुट गए हैं, यह बहुत बाद में समझ आएगा। हम इस गलत जगह को वैधता नहीं दे रहे। यह शायद हमारा अंतर्विरोध है और शायद हम इन्हीं अंतर्विरोधों के बीच रहते हुए कभी यह महसूस करें कि जिस 'डोमेन' पर हम इतने सालों तक लिखते रहे, उस उत्तर आधुनिक बहुराष्ट्रीय कंपनी के भीतर इस 'स्पेस' का निर्माण कैसे हुआ, यह पूछे जाने लायक सवाल बन गया है। उन्होने भले इसे इतने सैद्धांतिक और वैचारिक अर्थों में परत-दर-परत न उधेड़ा हो, उनकी नज़र अपने संभावित उपभोक्ता को यहाँ तक खींच लाने की मासूम-सी कोशिश भर हो, लेकिन उसकी इसी सोच के अंदर हम भी घुसपैठ करते हुए यहाँ तक दाख़िल हुए हैं। एक हद तक हम, हमारा मन ऐसा सोच रहा है। हम उसका प्रति-विचार उसी के दिये कोने में तय्यार करने की ज़िद से भर गए हैं। हमारी ज़िद कभी कम न हो और इसी उम्मीद के साथ यह दुनिया रहने के लिए बेहतर बनें। यही सोचकर लिखना नहीं छोड़ रहा। लिखकर अपनी दुनिया बनाऊँगा। बस.. अभी सिर्फ़ इतना ही।
हम इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए एक गलत जगह जुट गए हैं, यह बहुत बाद में समझ आएगा। हम इस गलत जगह को वैधता नहीं दे रहे। यह शायद हमारा अंतर्विरोध है और शायद हम इन्हीं अंतर्विरोधों के बीच रहते हुए कभी यह महसूस करें कि जिस 'डोमेन' पर हम इतने सालों तक लिखते रहे, उस उत्तर आधुनिक बहुराष्ट्रीय कंपनी के भीतर इस 'स्पेस' का निर्माण कैसे हुआ, यह पूछे जाने लायक सवाल बन गया है। उन्होने भले इसे इतने सैद्धांतिक और वैचारिक अर्थों में परत-दर-परत न उधेड़ा हो, उनकी नज़र अपने संभावित उपभोक्ता को यहाँ तक खींच लाने की मासूम-सी कोशिश भर हो, लेकिन उसकी इसी सोच के अंदर हम भी घुसपैठ करते हुए यहाँ तक दाख़िल हुए हैं। एक हद तक हम, हमारा मन ऐसा सोच रहा है। हम उसका प्रति-विचार उसी के दिये कोने में तय्यार करने की ज़िद से भर गए हैं। हमारी ज़िद कभी कम न हो और इसी उम्मीद के साथ यह दुनिया रहने के लिए बेहतर बनें। यही सोचकर लिखना नहीं छोड़ रहा। लिखकर अपनी दुनिया बनाऊँगा। बस.. अभी सिर्फ़ इतना ही।
jaruri h hame space,desh tkk pahuchna.......
जवाब देंहटाएंकोशिश करेंगे संदीप। शायद यह दो कदम पीछे और चार कदम आगे साबित हो। फ़िलहाल तो पहला क़दम है।
हटाएंखुश आमदीद बहुत अछा लग फिर से पढ़ना। लिखते रहें। शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंशुभकामनाओं के लिए धन्यवाद।
हटाएंआप सब ही ताकत हैं, उसी के सहारे एकबार फ़िर लौट आना संभव हुआ।
वाह्ह बहुत अछा लगा पढ़ना
जवाब देंहटाएंयहाँ, इस पते पर आने के लिए शुक्रिया संजय..:)
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