आबू रोड, 2007

बहुत पुरानी बात है । हम आबू रोड रेलवे स्टेशन पर गरीब नवाज़ एक्सप्रेस का इंतज़ार कर रहे हैं । रात बारह बजे के लगभग रेलगाड़ी को आना है । हम तीन लोग लगभग सात बजे से ही प्लेटफॉर्म पर तैनात हैं । हमारी टिकट कनफर्म नहीं है । न स्लीपर है न वेटिंग । हम सोच रहे हैं आबू घूम लिए अब यहाँ से आगे चले जाएँगे । बताने वाले बताते रह गए । हम अंबाजी नहीं गए । हम अजमेर जा रहे हैं या वहाँ से होकर आए हैं, यह याद नहीं कर पा रहा हूँ । हम हिमेश रेशमिया की एक खराब फ़िल्म अजमेर में देख चुके हैं या वहाँ पहुँचकर देखने वाले हैं, यह भी अब भूल चुका हूँ । बस यह याद है, इस सबमें हमारा ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ रह गया है । फिर इधर जहाँ अभी हम हैं, वह प्लेटफॉर्म नंबर एक है । प्लेटफॉर्म जहाँ ख़त्म हो रहा है, उस तरफ़ एक वेटिंग रूम है । उसमें एक परिवार है । पति पत्नी और उनके दो बच्चे । एक लड़का, एक लड़की । उन दिनों ट्रकों और टेम्पो के पीछे लिखे हुए वाक्य की तरह दिखाई देने वाला यह आदर्श परिवार कितने गर्भपात के बाद संभव हो पाया, यह आज तक एक प्रश्न की तरह बना हुआ है । बहरहाल । वह लड़का जो अपनी बहन से छोटा है, कान में हेडफ़ोन लगाए, पैरों से बड़े जूते पहने हुए खोया-खोया हुआ सा इधर से उधर, उधर से इधर चहलकदमी कर रहा है । लड़की पापा के साथ लूडो में जीत गयी है और अब उनके साथ कोलड्रिंक लेने जा रही है । पत्नी वहीं भीतर बैठी हुई है । बैठे हुए साड़ी या अपने सूट को देखे जा रही है । 

लगा उनका सब कुछ कितना व्यवस्थित और तय है । जून का महीना है । कहीं घूमने जाना है । वहाँ से कैसे लौटना है । कितने दिन पहले तो उन्होंने टिकट बुक कर लिया होगा । कोई आपाधापी नहीं है । मन तब उखड़ गया, जब लगा, क्या यह वक़्त कभी हमारी ज़िंदगी में भी होगा, इसका जवाब नहीं मिला ? जो दुख मुझे तब घर कर गया, उसे आज कह रहा हूँ । इसे नहीं भी कहता अगर अहमदाबाद से आने वाली राजधानी एक्सप्रेस इस स्टेशन से होकर न गुज़रती । दिसंबर दो हज़ार अट्ठारह की उन्नीस तारीख़ । रात के कितने बजे होंगे । घड़ी शायद नौ सवा नौ दिखा रही होगी । खाना खा कर भी अभी सोया नहीं हूँ । वह रेल पहुँची । मुझे पहले से पता है, कितने बजे यह वहाँ लगेगी । पहले से तैयार हूँ । आहिस्ते से नीचे उतरा । अपने डिब्बे से थोड़ा दूर जाकर उसकी तस्वीर खींची । उस जगह को अपने मन में टटोल कर देखना चाहा । शायद याद ही आ जाए हूबहू वही दृश्य । मुकेश कहाँ बैठकर हम दोनों भाइयों से बात कर रहा है । हम फोटो नहीं देख रहे हैं । ‘कोडेक केबी टेन’ कैमरा था । उसमें रील डलती थी । हम उन्हें धुलवाएंगे । तब देखेंगे । तब मेरे मन में एक ही खयाल चल रहा होगा, कभी हम भी सीट बुक करके चलेंगे । कितना लंबा सफर होगा । कितना आराम होगा । कितनी नींद पूरी की जा सकेगी । उस पूरे डिब्बे में हम भी पीठ के बल लेटे होंगे । लेकिन मुझे इसमें से एक बात भी याद नहीं आयी । बस याद आया, वह दुख । जो गरीब नवाज एक्स्प्रेस के आने के बाद मेरे भीतर भर गया था । हम ख़ुद को भूसे की तरह जनरल बोगी की तरफ़ ढो कर ले गए और रेल कुछ देर बाद सीटी देकर चल पड़ी । अंदर भीड़ थी । जगह के लिए लड़ाई थी । उमस थी । हवा नहीं थी ।

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