बाबा

तीन दिन तक डायरी में पैन ऐसे ही पड़ा रहा । कुछ लिखते न बना । लिख जाने से भी वह दुख कम हो जाता, ऐसा कह नहीं सकता । यह तब से रिस रहा है । इतवार की सुबह थी । साल का पहला इतवार । पाँच जनवरी । ठीक से साढ़े नौ भी नहीं बजे थे । फोन बजा । बाबा नहीं रहे । इस वाक्य को सुन लेने के बाद कुछ नहीं सूझा । दिमाग शून्य या मृत्युबोध से भर गया हो ऐसा भी नहीं है । हमारे बाबा अब इस दुनिया में नहीं हैं । इसके बाद कुछ चल ही नहीं पाया । अतीत की जैसी भी स्मृतियाँ हमारे पास हों वह इतनी घुली मिली होती हैं, उसमें से किसी पात्र के लिए आप कुछ अलगा पाएँ, ऐसा तुरंत हो पाना तो बिलकुल भी संभव नहीं है । अभी भी ऐसा कुछ कर जाऊंगा, लगता नहीं है । बाबा के साथ के सभी लोग, जैसा सब कह रहे हैं, उनसे छोटे उनसे बड़े, यहाँ तक आते-आते (कबके) उनसे छूट गए इसका कोई ब्यौरा मेरे पास नहीं है । वही बता रहे हैं, कोई नहीं बचा । सब एक-एक करके चले गए ।

आगरा होते हुए हम पहले लखनऊ पहुंचे । फिर लखनऊ से बहराइच । अभी सुबह हुई नहीं है । साढ़े तीन बज रहे हैं । सब एक तसले में लकड़ी जलाए उसे घेर कर बैठे हुए हैं । सब मतलब दो बड़े भाई । उनके पिता । हमारे ताऊ । एक छोटा भाई । चाचा और फूफा । तसले में मोबिल ऑइल से आग बुझ नहीं पा रही है । उसकी वजह से गीली लकड़ी को भी जलना पड़ रहा है । ठंड बहुत है । आग के घेरे के बाहर दो सेकेंड के लिए भी निकलने पर हाथ ठंडा जाये । ठंड इतनी है कि चेहरे पर तपिश लग रही है और पीठ ठंड से ठिठुर रही है ।

सपरिवार हम दृश्य में आ गए हैं । हलचल बढ़ गयी है । जो पानी में स्थिरता थी उसे हमारी उपस्थिति तोड़ देती है । अब एक बार चाय बन सकती है । संदीप और शिवम् चाय बनाने चले गए हैं । इससे ठंड न लगने का भरम बना रहेगा और नींद भी नहीं आएगी । बाबा को एक बार देख लो । इसी में किसी ने कहा । बाबा को भीतर ज़मीन पर चटाई पर बिछौनी पर लेटाया गया है । बाबा आँख मीचे लेटे हुए हैं । उन्होंने कसके आंखे बंद कर रखी हैं । लग रहा है बहुत गहरी नींद में सो रहे हैं । उनका चेहरा देखने पर लगता नहीं है, वह अब कभी नहीं उठेंगे । लगता है, जैसे अभी उठेंगे और अपने आस-पास जमा हुए इतने सारे लोगों को देखकर एक एक से उनसे उनके बारे में पूछेंगे । कब आए ? क्या काम है ? कब वापस चले जाओगे ? जिसे छोड़ आए हो, उसे क्यों नहीं लेते आए । अगली बार ले आना । थोड़ा बैठो । अभी चले जाना । क्या करोगे इतनी ठंड में बाहर जाकर ।

सबके चेहरे पर एक तसल्ली है । क्या इसे मैंने ही देखा या यह मेरे चेहरे पर भी किसी ने इसे देख लिया होगा । यह मेरी कल्पना भी हो सकती है । लगता है यह मेरी कल्पना ही है । पर इस बात का क्या करूँ जब एक-एक सभी चेहरों से गुज़र रहा था, उन पर कोई भाव क्यों नहीं था । क्या इसे भी मेरे मन ने अपनी सहूलियत के लिए बुन लिया था । दुखी सब थे । सब एक खेद से भरे हुए थे । उनकी धमनियों में भी शोक ख़ून की तरह बह रहा था । मुझे जो सब निर्वेद से भरे लग रहे थे इसके लिए मैं ख़ुद जिम्मेदार था । ऐसा मुझे लगना चाहिए थे । नहीं लगा । क्या जब एक वृद्ध मृत्यु को प्राप्त होता है, उसके परिवार में एक संतोष यह नहीं होता कि उन्हें अब किसी पीड़ादायक संताप से गुजरना नहीं पड़ेगा ? शायद । यह संतोष हम सबके सपाट चेहरों पर इतना प्रकट क्यों था ? क्या हम सब उन्हें उस दुख से बचा नहीं पा रहे थे, जो वह भोग रहे थे ? पता नहीं ।  

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