टूटने से पहले

कभी-कभी तो मुझे लगता है, किसी को भी कुछ कहने की ज़रूरत ही क्यों आन पड़ी है ? क्या जो कहा जाना है, वह उनके भीतर खुद कभी नहीं उतरेगा ? उसे, उस कहने को किसी सहारे की क्या ज़रूरत ? क्या ऐसे आने में वह स्वाभाविकता थोड़ी स्थगित नहीं हो जाएगी ? तब अगले ही क्षण यह भी महसूस होने लगता है, कोई किसी को कितना भी कह ले, वह तभी लिख पाएगा, जब कोई बात उसके अंदर बेचैन होती हुई अपने आप उगने लगेगी । अभी अगर देखूँ, तब पिछली बातें चाहते न चाहते किसे लिखी गयी हैं, वह बहुत साफ़ तौर पर दिख रहा है । एक लड़का है, जो वह लिख सकता है, जैसा लिख पाने की इच्छा को उसमें देखता हूँ, उसके बाद भी वह कागज़ के बाहर कह पाने में एक अजीब तरह के दबाव को महसूस करता प्रतीत होता है । यह सामाजिक बंधन हैं या उन अकथित अनुभवों के बाहर आ जाने के बाद अपनी छवि के टूट जाने का डर, इसे वह मुझसे अधिक जानता होगा । यह उसे तय करना है, कब और कैसे उन अकथित ब्यौरों को सबके सामने आना चाहिए । मैं उन पंक्तियों के लिखते हुए भी बराबर यह बात महसूस कर रहा था, कि एक लड़का अगर इस तरह से अपने मन को नहीं बता पा रहा तब उस स्थिति में क्या होता, जब उसकी जगह कोई लड़की होती ? क्या लिंग बदलते ही सब बदल जाता है? सवाल यह भी है, कि क्या यह किसी तरह का विरोधाभासी युग्म बना लेने जैसा लग रहा है या आप कुछ देर के लिए उन लैंगिक भूमिकाओं को तफ़सील से समझने के लिए अवकाश जैसा महसूस करना चाहते हैं ?

वैसे यह एकदम फिज़ूल क़िस्म की कवायद ही ज़्यादा लग रही है, जहाँ हम इस पूर्वधारणा से संचालित हैं कि उनके अनुभवों में, लड़का और लड़की दोनों के अनुभवों में कुछ ऐसी बातें, घटनाएँ, सूत्र या हवाले हैं या होने की संभावना अधिक है, जिन्हें सार्वजनिक तौर पर कोई प्रकट नहीं करना चाहेगा । ऐसा क्या होगा? प्रेम, ईर्ष्या, सपने, किसी दोस्त के साथ सोना, उसके साथ बहुत सारा वक़्त बिताना ? क्या ? आप कहाँ तक जाते हैं ? आपकी कल्पनाओं में यह बिन्दु कहाँ आकर ठहर जाता है ? हो सकता है ऐसी और बहुत सी स्थूल, छिछले, सतही से लगते बिन्दुओं के बाद उसका मन किसी घटना को दोबारा देखना चाह रहा हो । वह किसी बात को वैसे नहीं कहना चाह रहा हो, जैसे उसने सबके सामने कहा हो । उसका मन अपने पुराने दिनों में लौट जाने के लिए बेसबर हो रहा हो । कुछ भी हो सकता है । वह कुछ भी लिख सकते हैं । बस लिखते नहीं हैं ।

यहाँ सवाल आता है, वह ऐसा क्यों करते हैं ? हमारे समाज की संरचना क्या उन्हें कुछ कहने से रोकती है ? पारिवारिक ढाँचा उन्हें बने बनाए ढर्रों और साँचों में सोचने के लिए बाध्य करता है ? क्या वह जान रहे हैं, उनके साथ क्या हो रहा है ? वह अगर इनसे बाहर कदम भी रखेंगे, तब क्या होगा ? नैतिकताएँ इसलिए गढ़ी जाती हैं । यह चौहद्दी की तरह हमारे चारों तरफ़ मौजूद रहती हैं । कह देना तो प्रकट कर देना है । अपने मन का नक्शा दूसरों के हवाले कर देना है । वह तब हमें पहचान जाएँगे । जान जाने पर वह वापस अपने नियंत्रण को कसने की नयी तरकीबें और जुगत भिड़ाएंगे । ज़रा सोचिए, एक पितृसत्तात्मक समाज में अगर एक लड़के के भीतर इस तरह नियामक बने हुए हैं, वह अपने मन को पूरी तरह खोलने से रोके हुए है । तब जो जाति से, वर्ग से, लिंग से, भाषा से पदानुक्रम में जितने निचले पायदान पर होगा, उसके भीतर यह भय किस तरह व्याप्त होगा ? इसे भय ही कहना उचित है । वह अपने मन के भीतर भले उन सीमाओं को तोड़कर रख दे । उन्हें अपनी कल्पना में छिन्नभिन्न कर दे । पर वह यह नहीं चाहेंगे कि इसकी टोह भी कभी उनके दिल से बाहर धड़कन की तरह किसी दूसरे को सुनाई या दिखाई दे ।

व्यक्ति के तौर पर लिखना उन व्यवस्थाओं को चुनौती देने का पहला प्रयास है । यह कोशिश बहुत बड़े धमाके की तरह किसी को सुनाई दे, यह ज़रूरी नहीं है । ज़रूरी है, इस प्रक्रिया को अपने अंदर घटित होने देने का अवसर देना । जिनमें यह भाव इस तरह जड़ नहीं जमाएगा, वह लिखते हुए भी उसी संरचना के पोषक होंगे, जिनके खिलाफ़ उन्हें खड़े हो जाना था । जब उन्हें पता चलेगा, वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पाएंगे ।

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