कवि की बात

कभी तो सोचता हूँ, कवि कौन होते होंगे? वह कविता की किस परिभाषा से खुद को संचालित करते होंगे । पूर्व में घटित अनुभव या किसी बीती बात का मूल्य ऐसी किसी स्थिति में फँस जाने के बाद पता चलता है । शायद सब जानना चाहते हैं या आलोचकों और समीक्षकों के कहने पर हम सब कवियों के गद्य में डूब जाने की गरज से भर जाते हैं । यह गद्य कवि की कसौटी के रूप में कब सबसे पहले उभर कर सामने आया होगा ? देखता हूँ, कवि भी इससे बहुत भयभीत या संचालित होते रहते हैं । वह सबकी नज़र में इस कदर बने रहते हैं, जैसे हवा में दो छोरों से बंधी एक रस्सी है और उस पर उन सबका चलना तय किया गया है । जो निबंधकार हैं, कहानियाँ लिखा करते हैं, डायरी लिखते हैं, या संस्मरण में अपनी स्मृतियों का अन्वेषण करते हैं, उनसे कुछ अतिरिक्त की माँग कभी नहीं की जाती । वह इस सुविधा का उपभोग क्यों करते हैं और कवि बेचारे ख़ुद को साबित करने या कुछ ज़्यादा बताने के फ़ेर में पड़ जाते हैं । अगर भविष्य में मुझे भी अपनी कविताओं के लिए, जो दरअसल बहुत हड़बड़ाहट में इकट्ठी करनी पड़ रही हैं, उन्हें सबके सामने लाना पड़ा, तब मैं ख़ुद को इस अतिरिक्त विशेषता से ख़ुद को मुक्त पाऊँगा । यह किसी तरह की आत्मशलाघा नहीं है पर इतने साल मूलतः ख़ुद को गद्य का लेखक मानता रहा और कभी भी कविताओं की तरफ़ नहीं बढ़ पाया । मुझे लगता रहा, कविता जितना कहती नहीं उससे अधिक छिपा ले जाती है । या यह भी हो सकता है, वह बड़े धैर्यवान पाठक की अपेक्षा में ऐसी होती गयी हो, कह नहीं सकता ।

यह वही बात है, एक साथ सब साध पाने वाले लोग अलग मिट्टी से बने हुए लगते हैं । वह एक साथ कई सारी विधाओं में पारंगत ही नहीं होते बल्कि उस लिखे हुए को प्रकाशित करवा लेने की विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न होते हैं । मुझमें यह क़ाबिलियत नहीं है । मेरे साथ तो हमेशा यही होता है, जब यहाँ लिख रहा होता हूँ या कागज़ पर अपनी बातें दर्ज़ करता चलता हूँ, तब उसके रूप या फ़ॉर्म को बदलने का ख़याल भी मन में कभी नहीं आ पाता । कभी कवि हुआ तो पहले मुझे गद्य की नज़र से देखा जाये । यह कवि होना हमेशा से एक 'ओवर रेटेड टर्म' लगता है । कवि का अपना औरा है, वह उस अदृश्य प्रकाश पुंज से घिरा रहता है, जो उसे भी दिख नहीं पाता । उनका जीवन हम अन्यों से बहुत विशिष्ट होता होगा । उनकी देखने की दृष्टि बहुत महीन, बारीक और तीक्ष्ण होती होगी । वह हमेशा इस दुनिया के पार जाने की क्षमताओं से सम्पन्न होते होंगे ।

जिस तरह से सब अपने खर्च पर दुनिया बुनते हैं, वह अपने भीतर से इस दुनिया को समझने के सूत्रों की तरफ़ लौटता होगा । वह दिखते हमारे आपके ही तरह होंगे पर वह दूसरों तक कैसे पहुँचते हैं, वह बहुत कुछ कह जाता है । कविता अगर जीवन, अनुभव, स्मृति, प्रेम, घृणा, संताप, दुख, अवसाद, उम्मीद, अतीत, सपनों आदि से नहीं बनी है, तब वह कृत्रिम है । उसमें शब्दों के लच्छेदार घेरे हैं । खूब मेहनत है । उस भाषा को साध लेने का रियाज़ है । यह पुरानी लिखी कविताओं का भावानुवाद भी लग सकता है । मैं इन सबसे बचना चाहता हूँ । ऐसी कविता करना मेरा उद्देश्य नहीं है ।

यहाँ तक आते-आते अविनाश (अविनाश मिश्र) से बस एक बात कहना चाहता हूँ । इसे मेरा छोटा सा आग्रह माना जाये । तुम कभी मौका लगे, तब कविता क्या है? जैसे शास्त्रीय प्रश्न पर गौर करते हुए एक लेख लिखो । रामचन्द्र शुक्ल के निबंध के बाद यह हमारे समय की उपलब्धि होगा । कहो, किसे कविता कहते हैं ? वह क्या होती है ? उसकी संरचना, भाषा, शिल्प, शब्द संयोजन, बिम्ब योजना, रूपक का प्रयोग । तब शायद कुछ लोग, जो ख़ुद को कवि कहते हैं या कवि होते हैं, वह थोड़ा बहुत यह आभास तो कर पाएँ, वह जिन्हें कविता कहते आ रहे हैं, उनकी समझ में यह कविता होते हुए भी कुछ कम या कुछ ज़्यादा कविता होगी । पता नहीं इसके बाद हम अच्छी कविताएं बुन पाएंगे या कुछ बहुत ख़राब कविताओं को पढ़ने से बच जाएँगे । यह तुमसे क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि तुम कवि हो । कविता को कर्म की मानते हो । कभी-कभी आलोचना में कहते हो । इसलिए ।

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