निकलने से पहले

हर बार कहीं बाहर जाने से पहले मेरे मन में बहुत सारे ख़याल एक साथ तैरने लगते हैं । हर बार उन सबको लिखने की इच्छा से भर जाता हूँ । मुझे इसमें कुछ भी अस्वभाविक नहीं लगता । यह उन कम रह गए क्षणों का अतिरेक हो या बहुत दिनों से चलने वाली बातें, सब इस कदर अदेखा लगता है कि उस उजाले में कुछ भी दिखाई नहीं देता। एक तो जबसे इन बीतते सालों में अकेले निकलने के मौक़े आए हैं, वह भी इसके लिए ज़िम्मेदार होंगे । दूसरे, मेरे मन में जो बीत रहे पलों को कह देने की ज़िद है, उसके साथ-साथ भी इस तरह की अवस्थाओं को अपने अंदर रेखांकित करते जाना बहुत तरह से ख़ुद की निशानदेही के लिए ज़रूरी काम की तरह लगने लगा है । रास्ते हर बार देखे हुए हों ऐसा नहीं है। कई बार वह किसी रहस्य की तरह ख़ुलते हैं । इन स्मृतियों में अगस्त से उस पल को पता नहीं कितनी ही बार दोहराता रहा, जब होशंगाबाद पार हुआ आसमान में बादल दिखे। अँधेरा अभी हुआ नहीं था, सब दिख रहा था। तभी डिब्बे में अचानक एक बेचैनी घर कर गयी । भोपाल आ रहा है । मैंने पर्दे थोड़े हटा दिये। उस पल जैसे ही मैंने खिड़की के पार देखा, एक रेल्वे फ़ाटक दिखाई दिया । बंद था। उस तरफ़ एक दो लोग अपनी गाड़ियों के साथ खड़े थे । यह दृश्य मेरे मन में बार बार कौंधता रहा । उस लाल टीन की छत वाले छोटे से होटल में मुकेश, भाई और मैंने छह साल पहले दोपहर का भोजन किया था । वह जगह अभी भी वैसी बनी हुई है बिलकुल भी नहीं बदली । रायसेन के पहाड़। उसमें छूते बादल अभी भी वैसे हैं । 

फ़िर आज जिस सफ़र पर निकल रहा हूँ, उससे इतना अपरिचय नहीं है । बचपन से हम इस पर कभी सपरिवार कभी अकेले निकलते रहे हैं । गाड़ी लखनऊ तक जाएगी । उसके बाद बस में किसी खिड़की की तरफ़ बैठ जाऊँगा। कोई चार घंटे के बाद मैं उस जगह पहुँच जाऊंगा, जहां के लिए अभी घंटे भर बाद निकलने वाला हूँ । यह स्मृति कभी विस्मृत नहीं होती। इसमें ही लगातार गुजरते हुए हम यहाँ तक आ पाये हैं । अब जबकि कुछ ही देर में यहाँ से झोला उठाकर स्टेशन की तरफ़ चलना होगा, अभी किताबों पर सोच रहा हूँ। सोचा था, पहले ही निकाल लूँगा, पर वक़्त नहीं मिला । लैपटॉप नहीं ले जा रहा । अब तो मोबाइल ही लैपटॉप हुए जा रहे हैं । फ़िर जो थोड़ा बहुत काम होगा, वह आकर देख लेंगे । पर समस्या इसकी नहीं किताबों की है । मोहन राकेश का नाटक और हजारी प्रसाद की मेघदूत पर लिखी पुस्तक के अलावे सदानीरा का अंक सत्रह ले जा रहा हूँ, जो अविनाश के सम्पादन में निकलने वाला पहला अंक है । अंक पर असद ज़ैदी का असर होने के बावजूद इसे कतई नकारात्मक नहीं मानता । कभी प्रेरणा हमारे अग्रज भी बनते हैं । थलचर को ले जाने का इरादा टाल दूँ या लेता चलूँ? यह तय नहीं कर पा रहा । कुल दो हफ़्ते से भी कम समय है । शादी का घर होगा। इतना अवकाश पिछली बार की तरह मिल सकेगा, कह नहीं सकता । बस अब चलता हूँ, खाना खाने के लिए बुला रहे हैं ।

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