विलंबित

यह जो नहीं लिखना है, इसे क्या कहना चाहिए। एक समय वह भी रहा, जब लिखने की बैचनी इस कदर घेरे रहती थी कि कोई दिन ऐसा नहीं होता, जब कुछ लिख लेने की बात अंदर ही अंदर न चल रही हो। उसका अंदर मथना ऐसा होता, जब तक लिख न लो, खाली बैठे रहने का कोई मतलब नहीं। खाली बैठना मतलब लिखना। यह एकांत का सृजन नहीं उसे व्यस्त रखने और ख़ुद को कहीं ताखे या सिकहर पर रख देने का अवकाश ही रहा होगा, जब रात रात लिखते हुए गुज़ार दिया करता। अब यह सब कहाँ है ? क्यों दिन लिखने के बारे में बिन सोचे गुज़रते जा रहे हैं? ऐसा क्यों नहीं हो रहा, कि रात सोने से पहले कई सारी पोस्टों को एक साथ आगे-पीछे लिखकर पिछली तारीखों में लगता जा रहा हूँ? उन्हें कोई पढ़ रहा है या नहीं इससे ज़्यादा ज़रूरी उनका वहाँ मेरे मन से बाहर होना मायने रखता था। यह जो अतीत में सहज था, अब मुझे असहज क्यों लग रहा है? शायद मेरे पास इन सबमें से किसी भी बात का कोई जवाब नहीं है। जवाब होने चाहिए पर सवालों का बिना बौखलाए सामना करना भी उतना ही ज़रूरी है। सच, अब न लिखते हुए लिखने को 'मिस' नहीं कर रहा। उस आदत से इस कदर पीछा छूट जाएगा, कोई नहीं कह सकता था। मैं तो कतई नहीं। फ़िर भी यह दिन, यह शामें बिना कुछ लिखे बीत रही हैं। कोई नहीं है पूछने वाला क्यों नहीं लिख रहे? वह लिखने वाला पागलपन कहाँ चला गया? उसके बिना कैसे मज़े से कुछ-कुछ स्फुट लिख लिया करते थे, अब क्यों साँसे नहीं उखड़ रहीं? अक्सर साल खत्म होते-होते इन्हीं दिनों में सबसे ज़्यादा कह लेने की ज़िद कहाँ उड़ गयी?

क्या हुआ उस इच्छा का जिसमें, हर छोटे-बड़े ब्यौरे को लिख कर अपने पास रख लेने की हड़बड़ी हमेशा बनी रहती थी? कहीं किसी बस में किसी जेबतराश ने अपना कमाल तो नहीं दिखा दिया? एक बार तो मन किया, अब बोल बोल कर लिख लिया करूंगा। डिक्टेशन ऐप भी मोबाइल में डाउनलोड कर चुका हूँ। पर कोई फ़ायदा होता नहीं लग रहा। वह सुकून या एकांत पता नहीं कहाँ छूट गया। ऐसे कहाँ बोलता रहूँ, जहाँ कोई मुझे सुन न रहा हो। यह खिड़की जो मार्च-अप्रैल तक ढलते हुए सूरज की किरणों के साथ उस पीले उजाले को इस कमरे में बिखेर देती थी। जो उस तरफ़ से इस कमरे के अकेलेपन को बनाए रखती थी, वह समय अब कहीं पीछे रह गया। कभी लौट कर वापस नहीं आएगा। मैं यह नहीं कहता, इस तरफ़ छत और एक कमरा कहाँ से आ गए और उनके आने से यह लिखना कहीं मेज़ पर रखी किताबों और उस पर पड़ी धूल बन गया। पर इतना तो ज़रूर है, वह भले ओट न भी बना हो पर उसमें सेंध ज़रूर लग गयी है। इसके बावजूद मैं यह कहने नहीं जा रहा, इस अकेलेपन के टूटते ही मेरा लिखना कहीं खो गया। यह एक बहाने से भी गया गुज़रा बहाना होगा। अकेलापन उस एकांत में सृजित या निर्मित भले होता रहा हो पर वही उसकी निर्मिति का एकमात्र कारण रहा हो, ऐसा नहीं है। जब कहीं हम अपने अंदर झाँकते हैं, तब लगता है, वह अंतस अभी भी उसी तरह व्यक्तिक इच्छाओं और कल्पनाओं में वैसा ही बना हुआ है पर यह जो कमरा है, उसका एकांत उसे अंदर से बाहर निकालने का एक महत्वपूर्ण कारक है।

इस भूमिका में बार-बार उम्र के दबावों का आ जाना और उनका कहीं से भी कम न होने के बजाए लगातार बढ़ते जाना और उस अनुपात में मेरा क्रमशः कम लिखना, कहीं से भी संतुलित नहीं लग रहा। जिस वक़्त से गुज़र रहा हूँ, वह कोई बहुत बढ़िया दौर नहीं है। मेरे निर्णयों पर मेरा अधिकार नहीं है। पूंजी जैसी कमजोर इकाई पर सीमित अधिकार मेरे निर्णयों को उतना ही कमजोर और इकहरा बनाते जा रहे हैं। भले मैं आधुनिकता पर काम कर रहा हूँ। मेरे अंदर उसे दोबारा से पारिभाषित करने के आग्रह दिख रहे हैं। लेकिन जिस तरह उसे अब देखता हूँ, उसके आधार पर अभी मुझे आधुनिक होने के लिए और कोशिश करनी है। यह जो अपने निर्णय नहीं ले पाने की अक्षमता है, वह मुझे लेखन के प्रति उदासीन बनती जा रही है। मैं जो कहना चाहता हूँ या जो मेरी इच्छाएं हैं, उन्हें लगातार कब तक दमित करता रहूँगा, इसका कोई जवाब मुझे अपनी जेबों में नहीं मिल रहा। एक सीमा के बाद शायद ऐसा ही होना था। लिख लेने को लेकर मेरे अंदर एक जो ईमानदारी थी, उसे कभी ताक पर नहीं रखा पर उससे मुँह मोड़ लिया। मुँह मोड़ना, उसकी तरफ़ नहीं देखना है। जब वह दिखाई नहीं देगी, तब वही होगा, मैं जैसा महसूस करता रहा, उसे कभी कहने की कोशिश ही नहीं की। जो कहा, वह इतना अप्रत्यक्ष रहा, जिसमें मुझ तक पहुँच पाना किसी के लिए आसाम काम नहीं। मैं एक जगह से उखड़ कर यहाँ शायद इसी वजह से आया था। मैं कहना चाहता था, पर उस तरह बेपरदा होकर नहीं, जैसे वहाँ अक्सर उसे बंद करते-करते कहने लगा था।

अब जबकि यहाँ आए लगभग दो साल पूरे होने वाले हैं। मुझे लगता है, इन बातों पर मुझे गौर करना चाहिए। जिस तरह यह बन रहा है, उसमें मेरी कल्पनाओं को कितना अवसर दिया यह अलग बात है, असल बात है, मैं जो कहता रहा, उसमें मेरा चेहरा किस तरह दिखाई देता है। शायद इस जगह को निर्वैयक्तिक बनाते हुए कह तो रहा हूँ। पर बहुत ही दूर से कहता हुआ सब कितना अजीब हो गया है। या हो सकता है, जब मुझे अपने वह पुराने दिन आते हैं, जब बेधड़क लिख लिया करता था, और अब टाल देता हूँ, तब जो फाँक बनती हुई दिख रही है, उसे इन्हीं शब्दों में कहा जा सकता था।

(इसे अगले मंगलवार की रात और बुधवार की सुबह के बीच कहीं लिख रहा होऊंगा। लगा आज की तारीख़ में रहा हूँ। वक़्त लगभग वही है। )

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